बिहार में एक दुविधापूर्ण स्थिति है. जेडी(यू) ने अपने 'कठपुतली' मुख्य मंत्री को पार्टी से ही निकाल दिया है और उन पर अहसानफरामोश होने का आरोप लगाया है. उन पर यह भी आरोप है कि उन्होंने अपने 'आका' की बातें मानने और फिर उनके लिए कुर्सी खाली करने से इनकार कर दिया था. पार्टी का यह भी कहना है कि वह बेईमानी करते थे. लेकिन जीतन राम मांझी हैं कि मान नहीं रहे हैं. मामला बिहार के राज्यपाल के पाले में है जो फैसला करेंगे कि मांझी पद पर रहें या नहीं. लेकिन बात साफ है कि जेडी(यू) में विघटन का बिगुल बज चुका है और दोनों ही गुट आर-पार की लड़ाई में लग गए हैं.
नीतीश कुमार ने पिछले लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त पराजय झेलने के बाद पद छोड़ दिया था और कठपुतली मुख्य मंत्री के तौर पर सीधे-सादे जीतन राम मांझी को कुर्सी पर बिठा दिया था. इरादा साफ था. एक महादलित को उस पद पर बिठाकर वह उस वर्ग में वाह-वाही लूटना चाहते थे. दूसरा मकसद यह था कि उनसे जब चाहे कुर्सी खाली करवा ली जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया और दोनों के हितों में टकराव होने लगा. मांझी का निष्पक्ष व्यवहार नितीश कुमार को खटकने लगा. पार्टी के आरजेडी से विलय के मामले में भी उनका रुख अलग जाहिर है कि नीतीश कुमार का महादलित प्रेम काफूर हो गया और उनकी स्वतंत्र कार्यशैली से उन्हें पार्टी से निकलवा दिया. अब कुर्सी की जंग तेज हो गई है.
हो सकता है कि नीतीश कुमार संख्या के बूते यह जंग जीत जाएं. उनके पास बड़ी तादाद में विधायक हैं. लेकिन इसके छींटे उनके दामन पर पड़ेंगे ही. इससे उनकी साफ-सुथरी छवि को धक्का लगेगा. दलितों के प्रति प्रेम लालू प्रसाद भी जताया करते थे और उनके लिए कुछ नहीं करते थे लेकिन नीतीश कुमार ने काफी कुछ किया था. अब बात अपनी कुर्सी पर आई तो वह सारे सिद्धांत भूल गए. इसका उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ेगा. मांझी उत्तर बिहार में लोकप्रिय हैं और उन्हें हटाना नीतीश कुमार को भारी पड़ेगा. क्योंकि बिहार में नीतीश की लोकप्रियता में खासी कमी आई है. मुख्य मंत्री बनकर वह उसमें बढ़ोतरी तो कतई नहीं कर पाएंगे. आने वाला समय ही बताएगा कि इस प्रकरण से उन्होंने क्या खोया और क्या पाया. लेकिन अब उनके दलित प्रेम की कलई खुल गई है.