बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की स्टाइल भले ही फिल्मी हो, पर तरीका बिलकुल चाणक्य जैसा है. मांझी फिल्म नायक के किरदार की तरह काम करते नजर आ रहे हैं तो चाणक्य की तरह हर कदम ठोक-बजाकर रख रहे हैं. मांझी का मकसद भी फिल्म नायक के किरदार जैसा है या नहीं? ये कहना मुश्किल होगा.
अपने को बिहार के चाणक्य के तौर पर प्रचारित करनेवाले नीतीश कुमार के राजनीतिक जीवन में एक दौर ऐसा आया जब वो खुद को मझधार में फंसा हुआ महसूस कर रहे थे. तब उन्हें एक 'मांझी' की जरूरत थी जिसे पतवार थमाकर वो तब तक ब्रेक ले सकें जब तक लोग लोकसभा चुनावों में उनकी करारी हार की बात भुला दें. तभी उन्हें जीतन राम मांझी का नाम सूझा. नीतीश ने सोचा तो यही होगा कि 'मांझी', उनके खड़ाऊं के सहारे शासन चलाएंगे, लेकिन सोचा हुआ होता कब है?
19 मई, 2014 को इस्तीफा देकर नीतीश कुमार ने मांझी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तो कहा गया कि अब वह रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाएंगे. नीतीश ने रिमोट तो अपने पास रखा, लेकिन बैटरी बदलना भूल गए. पुरानी बैटरी भला कितना दिन चलती और अब तो बैटरी तभी बदलती जब मुख्यमंत्री उसकी इजाजत देता. जब तक नीतीश को ये बात समझ में आती तब तक काफी देर हो चुकी थी. या कहें कि बाजी हाथ से तकरीबन निकल चुकी थी.
ब्रेक में भी बने रहे
ऐसा नहीं है कि मांझी को कुर्सी सौंप कर नीतीश चार धाम की यात्रा पर निकल गए. नीतीश नियमित तौर पर विधायकों से मिलते रहे. लोगों से जुड़े रहने के लिए जब तब कहीं न कहीं दौरा भी करते रहे. उधर, मांझी चुपचाप कामकाज की बारीकियों को समझते रहे. राजनीति का पुराना अनुभव तो उनके पास था ही, बस इस तरह काम करने की आजादी पहली बार मिली थी.
बिहार में जातिगत राजनीति की कितनी अहमियत है ये मांझी को अच्छी तरह पता था. मांझी जानते थे कि जिस महादलित एजेंडे के भरोसे नीतीश ने बिहार में अपनी राजनीतिक पकड़ मजबूत की वह खुद भी उसी तबके से आते हैं. शायद तभी उन्होंने समझ लिया कि बंदूक चलाने के लिए कंधा देने से तो अच्छा है कि खुद ही बंदूक थाम लो. मांझी के पास कुर्सी और कलम तो थी ही उन्होंने नीतीश के हाथ से महादलित फॉर्मूले से लैस बंदूक भी लपक ली. इसके बाद वह चुन चुन कर शिकार करते चले गए.
महादलित मुख्यमंत्री का पासा
मांझी शायद लोहा गर्म होने का इंतजार कर रहे थे. जैसे ही मौका मिला एक राजनीतिक चाल चली. भरी महफिल में मांझी ने एलान कर दिया कि वह संन्यास लेना चाहते हैं. बस एक आखिरी राजनीतिक ख्वाहिश है – अगला मुख्यमंत्री कोई महादलित ही बने. ये भी तीर निशाने पर लगा. मांझी महादलितों के असली मसीहा बन कर उभरने लगे.
नौकरशाही पर निशाना
मांझी ने नीतीश कुमार के सबसे चहेते अफसर को टारगेट किया जिसे न तो कोई नेता और न ही उसके साथी अफसर पसंद करते थे. अगर वो किसी को पसंद थे तो बस नीतीश के जिसके पास रिमोट तो था लेकिन बैटरी डिस्चार्ज हो चुकी थी. मांझी ने उस अफसर को सस्ते में चलता कर दिया. मांझी ने कुछ और अफसरों पर भी निगरानी बैठा दी. इसके लिए उन्होंने अपने भरोसेमंद अफसरों को जगह जगह तैनात किया. मांझी को पता था कि बिहार में अगर सबसे ज्यादा किसी पर भरोसा किया जा सकता है तो वो है अपनी बिरादरी. उन्होंने ऐसे अफसरों को चुन चुन कर अहम पदों पर सेट कर दिया.
अब टारगेट पर मंत्री
अफसरों के बाद मांझी ने अपनी सरकार के कुछ ऐसे मंत्रियों को भी शॉर्ट-लिस्ट किया जिन्हें नीतीश का आदमी समझा जाता है. मांझी की नजर में लल्लन सिंह, पीके शाही, श्याम रजक और श्रवण कुमार काम तो उनके साथ करते हैं मगर नीतीश के ज्यादा करीब लगते हैं. माना जा रहा है कि अफसरों की तरह मांझी ऐसे मंत्रियों को भी बाहर का रास्ता दिखाने की कोशिश में हैं.
बताओ तो, नेता कौन?
मांझी की ही तरह उनके समर्थक भी बागी तेवर अपनाए हुए हैं. मांझी के बढ़ते कद को देखते हुए विधायकों ने भी बयानबाजी शुरू कर दी है. संवैधानिक प्रक्रिया का हवाला देते हुए वे कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री के अलावा पार्टी अध्यक्ष या कोई और विधायक दल की बैठक भला बुला कैसे सकता है. नीतीश समर्थकों का अपना तर्क है. उनका कहना है कि खुद मांझी कौन से विधायकों द्वारा चुने नेता हैं. उन्हें तो नीतीश कुमार ने मनोनीत किया और वो मुख्यमंत्री बन गए. फिर वो किस मुंह से ऐसी बातें कर रहे हैं.
ब्रेक के बाद की बैठकें
बिहार में बैठकों का दौर जारी है. एक साथ इतनी बैठकें नीतीश के सत्ता से ब्रेक लेने के बाद पहली बार हो रही हैं. मांझी अपने समर्थकों के साथ, तो नीतीश अपने समर्थकों के साथ रणनीति तैयार कर रहे हैं. नीतीश के साथ जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव का सपोर्ट है तो उनके पॉलिटिकल पार्टनर लालू प्रसाद ने भी हरी झंडी दिखा दी है. हालांकि, पर्दे के पीछे वो मांझी के पक्ष में हवा भी बना रहे हैं, ऐसी चर्चा है. समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव भी फोन कर नीतीश को कुर्सी संभालने की सलाह दे चुके हैं, वहीं बीजेपी से हाथ मिला चुके लोक जनशक्ति पार्टी नेता राम विलास पासवान मांझी की आवाज़ को बुलंद करने का प्रयास कर रहे हैं. डिस्चार्ज हो चुकी बैटरीवाला रिमोट लिए नीतीश कुमार समझ नहीं पा रहे हैं कि अब अपने भस्मासुर से निपटें तो आखिर कैसे?
कभी कभी लग रहा है कि ये सारी गतिविधियां पटना में नहीं बल्कि गोकुलधाम सोसाइटी में चल रही हैं. तारक मेहता के उल्टे चश्मे से तो फिलहाल यही नजर आता है.