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दिल्ली: अब नहीं रहा रावण की ‘जलती टांग’ मोहल्ले में लाने का चलन

हाईटेक दौर की रामलीला देख रही दिल्ली ने कभी हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का वह दौर भी देखा है, जब दशहरे के दिन दहन के बाद जलता हुआ रावण गिरता था तो मुस्लिम युवक उसके पैरों की जलती बल्लियां खींचकर निकालते थे और उसे लेकर अपने मोहल्ले की ओर भागते थे. उन दिनों मोहल्ले में रावण की ‘जलती टांग’ लाना शगुन माना जाता था.

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रावण दहन
रावण दहन

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हाईटेक दौर की रामलीला देख रही दिल्ली ने कभी हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का वह दौर भी देखा है, जब दशहरे के दिन दहन के बाद जलता हुआ रावण गिरता था तो मुस्लिम युवक उसके पैरों की जलती बल्लियां खींचकर निकालते थे और उसे लेकर अपने मोहल्ले की ओर भागते थे. उन दिनों मोहल्ले में रावण की ‘जलती टांग’ लाना शगुन माना जाता था.

यादों को खंगालते हुए उर्दू अकादमी के सचिव अनीस आजमी ने बताया, ‘वह दौर हमारी ईद और हमारी दिवाली का था. रामलीला हमारा पसंदीदा आयोजन था. उन दिनों रामलीला में कम से कम 10 फीसदी भागीदारी मुसलमानों की और हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर होने वाले उर्स में लगभग दस फीसदी हिंदुओं की भागीदारी जरूर होती थी. हम सब मिलकर रावण बनाते थे और रामलीला उत्सव में भाग लेते थे.’

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उन्होंने बताया, ‘मेरा घर रामलीला मैदान के पास था. यहां सबसे बडा रावण जलता था. दहन के बाद जब रावण गिरता था तो मैं और मेरे साथी उसके पैरों की जलती बल्लियां लेकर अपने मोहल्ले की ओर भागते थे.

बल्लियों से चिंगारियां निकलती रहती थी और उन्हें हाथों में पकड़कर हम दो सौ से तीन सौ गज भागते थे. मोहल्ले वाले खुश हो कर कहते थे, ‘रावण की टांग हमारे मोहल्ले में आई.’ इसे अच्छा शगुन माना जाता था.’

अब तो शायद लोग इस पंरपरा को भूल भी गए होंगे और आज तो सुरक्षा वाले पास भी नहीं जाने देते. सब कुछ बदल गया है.’ उन्होंने कहा कि यह सच है कि अब रावण की ‘जलती टांग’ मोहल्ले में लाने का चलन नहीं रहा और इस पर बदलता दौर हावी हो गया है.

वर्ष 1924 से रामलीला कर रही श्रीधार्मिक रामलीला समिति के अध्यक्ष विश्वनाथ गुप्ता (70) कहते है, ‘कई पीढ़ियां गुजर गई. मैंने अपने पिता से सुना था कि पहले यह रामलीला भागीरथ पैलेस में, फिर गांधी मैदान में, फिर परेड ग्राउंड में और अब लालकिला के पास रामलीला मैदान में होती है. पहले मथुरा के कलाकार आते थे. अब स्थानीय लोग काम करते है. हमारी कोशिश रहती है कि तकनीक का इस्तेमाल कम हो. हमारा जोर मूल रामायण पर अधिक रहता है.’

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वर्ष 1969 से शुरूआत कर 40 साल का सफर पूरा कर चुकी लवकुश रामलीला समिति के संस्थापक अजरुन कुमार कहते है, ‘अब दर्शक तकनीक देखना चाहते है. उन्हें डिमर लाइट, इको माइक, चिल्लाकर तलवार घुमाने वाला रावण अच्छा लगता है, जिसकी नाभि में तीर लगने पर दोनों आंखों से धुंआ निकलता है.’

वह कहते है, ‘160 से अधिक देशों में पहली बार हमारी रामलीला का सीधा प्रसारण हो रहा है और यह मोबाइल फोन पर भी उपलब्ध है. हम युवाओं को रामायण की ओर आकृष्ट करने के लिए ढाई करोड ईमेल भेज रहे है. फेसबुक पर हमारे 1800 सदस्य हैं.’

कश्मीरी गेट के श्रीराम वाटिका की ‘नवयुवक रामलीला समिति’ के महामंत्री जत्थेदार अवतार सिंह कहते हैं, ‘रावण की उंचाई बजट पर निर्भर करती है. 1972 में जब हमने यह समिति बनाई थी, तब हमारा बजट 90 रूपये था, जो आज लाखों में जाता है. इस बार हमारे यहां रावण के साथ भ्रष्टाचार का पुतला भी जलेगा.’

वह कहते हैं, ‘पहले और आज की सोच में जमीन आसमान का अंतर है. आज सब कुछ व्यवसायिकता के बाद आता है. आत्मविश्वास की जडें गहरी हैं, लेकिन हमारी विरासत तो हमे ही सहेजनी चाहिए. हमारी रामलीला में राम की भूमिका हिंदू युवक और लक्ष्मण की भूमिका मुस्लिम युवक निभा रहा है.’

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