अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के दौरे से भारत ने इससे ज्यादा पाने की आस नहीं लगाई थी. यूं तो अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के लिए भारत के नाम पर अपनी ओर से हामी भर दी है. पर चीन भी सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्यों में से एक है. भारत को चीन के समर्थन की भी दरकार होगी. आतंकवाद के मसले पर भारत की जनता ओबामा के मुंह से पाकिस्तान के बारे में उससे कहीं ज्यादा सुनने को बेताब थी, जितना ओबामा दौरे के शुरुआत कहने को तैयार थे. बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति ने आतंकियों के लिए जन्नत साबित हो रहे पाकिस्तान के खिलाफ अपेक्षाकृत कड़ा बयान दिया.
जो लोग पहले यह सोचकर भयभीत हो रहे थे कि कहीं ओबामा कश्मीर पर कोई कठोर बयान न दे बैठें, वे अब चकित हैं. यह एक ऐसा मसला है, जिसपर भारत की कूटनीतिक स्थिति फिलहाल कमजोर है. ओबामा अमेरिका की तयशुदा नीति से बिलकुल भी अलग नहीं हटे. अमेरिका अब तक यही मानता रहा है कि कश्मीर विवाद भारत और पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मसला है. साथ ही ओबामा ने दोनों देशों के बीच बातचीत शुरू करने के पक्ष में राय दी है. इस मसले पर उन्होंने मनमोहन सिंह के सामने एक बेहतरीन अवसर भी मुहैया करा दिया है. मनमोहन के उस रुख को बल मिला है, जिसमें उन्होंने कहा है कि पाकिस्तान की जमीन से आतंकवाद को समर्थन और उससे वार्ता-दोनों साथ-साथ नहीं चल सकती.
कुछ भारतीय कंपनियों पर लगाए गए प्रतिबंध अमेरिका ने वापस ले लिए. इससे दोनों देशों के बीच दोहरे उपयोग की तकनीक पर भी सहमति बनने का रास्ता साफ हुआ. ओबामा ने खुद भी आउटसोर्सिंग के बारे में चल रही बयानबाजी को और बढ़ाया. {mospagebreak}अमेरिका की शिकायत यह रही है कि उसके देश से नौकरियां भारत जा रही है. ओबामा खुद भारत की ऐसी छवि पेश करने को बाध्य हुए कि यह देश पूरी दुनिया के लिए 'वैकल्पिक कार्यस्थल' जैसा है. भाषण के दौरान मनमोहन सिंह ने यह स्पष्ट कर दिया कि अमेरिका के लिए भर्तियां मुहैया करना भारत का काम नहीं है.
दो मित्र राष्ट्रों के बीच भारी-भरकम काफिले समेत किए गए दौरे के पीछे अपना हित साधने की मंशा तो होती है. साथ ही इसमें यह मतलब भी निहित होता है कि दुनिया के सामने इस रिश्ते में छिपी ताकत को कैसे भुनाया जाए. राष्ट्रपति ओबामा अमेरिका के हितों को साधने के लिए ही भारत दौरे पर आए. ऐसा करने में वे कामयाब भी रहे. उन्होंने भारत के साथ 14 बिलियन डॉलर के सौदे पर हस्ताक्षर किए. उन्होंने दावा किया कि वे 72 हजार नौकरियां अमेरिका ले जाने में सफल रहे हैं. उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि भारत-अमेरिका संबंध के विस्तार की असीम संभावनाएं मौजूद हैं. ऐसा न केवल द्विपक्षीय व्यापार के जरिए, बल्कि राजनैतिक, रणनीतिक और जनता के स्तर पर भी मुमकिन है.
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और सबसे पुराने लोकतंत्र के बीच इतनी प्रगाढ़ मित्रता कुछ ज्यादा पुरानी नहीं है. बहरहाल, सबसे अहम सवाल यह है कि क्या यह मित्रता बराबरी के स्तर पर और सम्मानपरक साबित होगी या भारत से यही आशा की जाती रहेगी कि वह अमेरिका की रणनीतिक जरूरत को पूरा करने वाला 'जूनियर पार्टनर' बनकर रहे. दूसरी स्थिति भारत को कतई मंजूर नहीं होगी. ऐसा तो बराक ओबामा ने भी दावा किया है कि भारत 'विकासशील' नहीं, बल्कि 'विकसित' देश है.