शाही जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी मजहब की आड़ में समानांतर सत्ता ही नहीं चलाते, बल्कि सियासी शिगूफे छोड़ अपना वर्चस्व साबित करने की कोशिश करना उनका शौक बन चुका है. हाल ही में उन्होंने अपने 19 साल के बेटे शाबान बुखारी को जामा मस्जिद का नायब इमाम बनाने के लिए सार्वजनिक तौर पर दस्तारबंदी की घोषणा की. इस समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़कर देश-दुनिया के लोगों को आमंत्रित किया और 22 नवंबर को उन्होंने जामा मस्जिद परिसर में भव्य समारोह आयोजित कर जता दिया कि 17वीं सदी में बनी इस मस्जिद पर मानो सिर्फ उन्हीं का हक है.
इमाम के निजी आयोजन को पूरे मुस्लिम समुदाय का आयोजन साबित करने की कोशिश करते हुए उनके समर्थक शाहिद रजा ने उसे सियासी रंग दे दिया. उन्होंने कहा कि 400 साल की परंपरा को तोडऩे नहीं दिया जाएगा और किसी ने मुसलमानों के खिलाफ साजिश की तो कानून उनके जूतों की नोक पर होगा.
जिद और दस्तारबंदी पर उठते सवाल
बुखारी ने दस्तारबंदी समारोह का ऐलान करते हुए प्रधानमंत्री मोदी को जान-बूझकर न्योता नहीं दिया ताकि आदतन एक विवाद खड़ा कर सकें. हालांकि
दिल्ली हाइकोर्ट में वक्फ बोर्ड ने साफ तौर पर कहा कि जामा मस्जिद वक्फ की है और बुखारी उसके कर्मचारी. दिल्ली वक्फ बोर्ड के चेयरमैन चौधरी मतीन
अहमद ने इंडिया टुडे से कहा, 'शाबान की नियुक्ति की कोई कानूनी वैधता नहीं है.' वैसे इस्लामी कानून भी इस दस्तारबंदी को मान्यता नहीं देता. दारुल
उलूम, देवबंद का इस संवेदनशील मसले पर साफ कहना है कि इस्लाम में इस तरह की परंपरा की कोई गुंजाइश नहीं है कि इमाम का बेटा ही इमाम
बनेगा.
सवालों के घेरे में बढ़ती संपत्ति
1976 में अहमद बुखारी के पिता जब इमाम थे तो उन्हें महज 179 रुपये तनख्वाह मिलती थी. हालांकि वह बुखारी की संपत्ति अब हजारों करोड़ रुपये की
होने का दावा किया जा रहा है, लेकिन इसकी पुष्टि के लिए कोई ठोस सबूत नहीं है. सामाजिक कार्यकर्ता सुहैल का आरोप है कि बुखारी की संपत्ति न सिर्फ
हिंदुस्तान में फैली है, बल्कि मक्का-मदीना तक इनके होटल और व्यापार हैं. उन्होंने हाइकोर्ट से मांग की है कि बुखारी की संपत्ति कहां से आई, इसकी जांच
कराई जानी चाहिए.
मस्जिद की संपत्ति का हिसाब नहीं
मस्जिद की आमदनी के हिसाब को लेकर अक्सर वक्फ बोर्ड और शाही इमाम के बीच टकराव की नौबत सुर्खियां बनती है. लेकिन सवाल उठता है कि जामा
मस्जिद को होने वाली आमदनी का आखिर क्या होता है? मतीन अहमद कहते हैं, 'संपत्ति तो वक्फ बोर्ड की है, लेकिन देखरेख इमाम बुखारी ही करते हैं.
वक्फ की संपत्ति होने के लिहाज से आमदनी का सात फीसदी हिस्सा बोर्ड को मिलना चाहिए. लेकिन मिलता नहीं है.' जबकि सामाजिक कार्यकर्ता फहमी
और सुहैल का दावा है कि मस्जिद की रोजाना की आमदनी करीब 3.5 से 4 लाख रुपये की है.
बेअसर होते फतवे
जामा मस्जिद अपनी धार्मिक पहचान से ज्यादा सियासी फतवों की वजह से चर्चा में रहने लगी है. मौजूदा इमाम तो राजनीतिक फतवे देने में रिकॉर्ड तोड़
रहे हैं. 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में इमाम बुखारी ने सपा के पक्ष में फतवा जारी किया, लेकिन बेहट सीट से उनके दामाद उमर की जमानत जब्त हो
गई. इस हार के बाद भी अपनी इमामत के रुतबे का दबाव बनाकर बुखारी ने दामाद को उत्तर प्रदेश विधान परिषद का सदस्य और अपने दोस्त हाजी मुन्ना
के बेटे वसीम को राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का चेयरमैन बनवाया.
देश के मुसलमानों की बात तो दूर बुखारी का जामा मस्जिद इलाके के मुसलमानों के बीच भी खास पकड़ नहीं लगती. शुएब इकबाल इमाम बुखारी के विरोध के बावजूद पिछले 20 साल से जनता की नुमाइंदगी कर रहे हैं. यूपी सरकार में वरिष्ठ मंत्री आजम खान तो हिकारत भरे लहजे में कहते हैं, 'ये जनाब जिस इलाके में रहते हैं वहां एक पार्षद तक नहीं जिता सकते. सामने वाला इनकी छाती पर चढ़कर विधायक बनता है. मुसलमानों पर इनकी कितनी पकड़ है, इसकी इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि इनके दामाद उत्तर प्रदेश में सीट नंबर एक जहां सबसे ज्यादा मुसलमान हैं, वहां जमानत भी नहीं बचा पाए.'
इमाम बुखारी की दास्तान यहीं खत्म होती नहीं दिखती. हद तो तब हो गई जब बुखारी ने समाजवादी पार्टी से राज्यसभा के लिए चुने गए सात में से एकमात्र मुस्लिम सांसद चौधरी मुनव्वर सलीम को लूला-लंगड़ा, अंधा कहा.