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UP में BJP सरकार के एक साल: हाशिए पर आम कार्यकर्ता, कैसे फतह करेंगे 2019?

यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार का एक साल पूरा हो चुका है. बीजेपी लोकसभा चुनाव की तैयारियों में है. उपचुनाव नतीजों के बाद अब सरकार और संगठन दोनों कसौटी पर हैं. दरअसल, कमजोर नजर आ रहे विपक्ष के हाथों यूपी में बीजेपी ने जिस तरह अपनी सीटें गंवाई वो स्थितियां पार्टी के लिए निराशाजनक हैं.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  के साथ  यूपी के मुख्यमंत्री  योगी आदित्यनाथ (फाइल फोटो)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (फाइल फोटो)

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उपचुनाव नतीजों के बाद महज कुछ दिनों के अंदर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट बनारस से लेकर नई दिल्ली के बीजेपी मुख्यालय तक हवा का रुख बदला-बदला सा है. यूपी से आई ये बयार आगामी चुनाव के लिहाज से प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज पार्टी के लिए अनुकूल नहीं है. एक तरीके से देखें तो महीने भर में नॉर्थ ईस्ट की हैरान करने वाली जादुई सफलता के गुबार पर गोरखपुर और फूलपुर के नतीजों ने पानी डाल दिया. अब काफी कुछ शीशे सा साफ देखा जा सकता है.

यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार का एक साल पूरा हो चुका है. बीजेपी लोकसभा चुनाव की तैयारियों में है. उपचुनाव नतीजों के बाद अब सरकार और संगठन दोनों कसौटी पर हैं. दरअसल, कमजोर नजर आ रहे विपक्ष के हाथों यूपी में बीजेपी ने जिस तरह अपनी सीटें गंवाई वो स्थितियां पार्टी के लिए निराशाजनक हैं. इसकी तमाम वजहें नजर आती हैं. किसी पार्टी को वोट देने वाली जनता को शांति और वर्षों पार्टी के लिए जी-जान से मेहनत करने वाला कार्यकर्ता, सम्मान के साथ अपनी बात सुने जाने की उम्मीद रखता है. दबी जुबान यूपी में दोनों चीजें बहसतलब हैं. अब एक पर एक चुनावी सफलताओं के नीचे दबी असंतोष की आवाजें सतह पर आने लगी हैं.

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बनारस में बीजेपी के एक कार्यकर्ता की अपनी शिकायतें हैं. वो पिछले दिनों बनारस में मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति मेक्रों की यात्रा में खुद को किनारे किए जाने की बात से दुखी हैं. हालांकि उन्होंने माना कि यह एक सरकारी दौरा था और प्रोटोकाल की वजह से तमाम कार्यकर्ता उसमें शामिल नहीं हो सकते थे, पर बीजेपी के कई स्थानीय नेताओं को न्योता मिलने की स्थिति में खुद को नजरअंदाज किया जाना उन्हें चुभ रहा है. उन्होंने कहा, "मैंने 40 साल से ज्यादा पार्टी के लिए ईमानदारी से मेहनत की. कभी कुछ नहीं मांगा. संगठन से जो जिम्मेदारी मिली, निभाता रहा. लेकिन अब प्रोटोकाल के नाम पर मुझे ही प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों में बुलावा नहीं मिलता. जबकि बाहरी नेताओं को सम्मान दिया जा रहा है."

उन्होंने कहा, बनारस के सांसद का प्रधानमंत्री होना और इस वजह से हर कार्यक्रम में उनसे न मिलवा पाने की मजबूरी समझ आती है पर पीएम के सांसद प्रतिनिधि भी आम कार्यकर्ताओं की पहुंच में नहीं हैं. यह दुखद है. राज्य के स्थानीय संगठन, ठेका तंत्र का शिकार हो चुके हैं. पार्टी का कोर कार्यकर्ता मौजूदा हालात से नाराज है. उन्होंने आरोप लगाया कि ईमानदारी से संगठन के लिए काम करने वाले हासिए पर हैं. ये आडवाणी-वाजपेयी की पार्टी नहीं है.

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हालांकि पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता शलभमणि त्रिपाठी इन आरोपों को पूरी तरह खारिज करते हैं. वो कहते हैं, "बीजेपी लीक से अलग पार्टी हैं. जिसमें कार्यकर्ता हमेशा से सर्वोपरि रहे हैं."

उधर, यूपी बीजेपी के अनुसूचित जाति जनजाति मोर्चा के एक नेता पार्टी में कार्यकर्ताओं की भूमिका और उपचुनाव नतीजों को दूसरी तरह से देखते हैं. नाम न छापने की शर्त पर वो इसके पीछे विधानसभा चुनाव में उस नारे को बड़ी वजह मानते हैं जिसे सत्ता पाते ही बीजेपी भूल गई. उन्होंने कहा, "यूपी में 'दो को छोड़ बाकी जोड़' का नारा ऐतिहासिक था. अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा और उससे पहले मायावती के नेतृत्व में बसपा के शासन में खास जातियों को सत्ता संरक्षण मिला हुआ था. तब लोगों ने बीजेपी के नारे में भरोसा किया, लेकिन योगी की सरकार के शुरुआती 12 महीनों में यह भरोसा बुरी तरह टूटा है."

उनका आरोप है कि जिस तरह माया और अखिलेश की सरकार में कुछ जातियां थानों, प्रशासन के मामलों में दबंग दिख रही थीं वैसे ही योगी की सरकार में भी चुनिंदा जातियों को 'सत्ता संरक्षण' मिला हुआ है. गोरखपुर से गाजियाबाद तक उत्पीड़न, हत्या और मारपीट जैसे दर्जनों उदाहरणों में इसे देखा जा सकता हैं. लोग नाराज हैं. (दो को छोड़ बाकी जोड़ का नारा कथित तौर पर बीजेपी ने यादव और जाटव जातियों को छोड़कर सभी को पार्टी से जोड़ने के लिए दिया था). बीजेपी प्रदेश प्रवक्ता यह मानते हैं कि कुछ कमियां रह गईं. हम उपचुनाव नतीजों को स्वीकार करते हैं. कमियों को दुरुस्त करेंगे. उन्होंने कहा, कार्यकर्ता हमेशा से पार्टी की पूंजी रहे हैं. 2014 का आम चुनाव हो या 2017 का विधानसभा चुनाव. कार्यकर्ताओं की वजह से पार्टी ने जीत हासिल की. उन्होंने यह दलील भी दी- "साधारण परिवारों से आने वाले मोदी का प्रधानमंत्री, योगी का मुख्यमंत्री और श्री रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति बनना इस बात का सबूत है."

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अखिलेश सरकार में कथित सत्ता प्रायोजित उत्पीड़नों पर राज्यव्यापी आंदोलन करने वाले शाहनवाज आलम अनुसूचित मोर्चा के नेता की बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "पुलिस थाने और सरकारी दफ्तर वसूली का अड्डा बने हुए हैं. इन पर कुछ जातियों का कब्ज़ा है. आम जनता सत्ता संरक्षण में पनपी इस तरह की गुंडई का जवाब वैसे ही देती है जैसे गोरखपुर और फूलपुर में दिया." हालांकि विकल्प के तौर पर सपा के चुनाव पर वो अपनी चिंता भी जाहिर करते हैं. कहते भी हैं कि यूपी में पिछले कई चुनाव से तमाम मुद्दे घूम फिर कर वहीं हैं. इन्हीं मुद्दों पर कई दशक से चुनाव लड़ा जा रहा है. जनता वोट करती है. सरकारें बनती हैं. लेकिन मुद्दा जस का तस बना रहता है. शाहनवाज कहते हैं कि यूपी को बीजेपी, सपा और बसपा का विकल्प तलाशना होगा. लेकिन विकल्प क्या होगा, खुद इसका जवाब उनके पास नहीं है.

नॉर्थ ईस्ट में पार्टी का काम कर चुके यूपी इकाई के एक नेता बीजेपी की अंदरुनी चीजों को दूसरी तरह से देखते हैं. नाम न लिखने की शर्त पर उन्होंने कहा, "चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्या फिर अब नरेश अग्रवाल जैसे नेताओं को पार्टी में शामिल करने की मजबूरी समझ नहीं आई. इन वजहों से दिल्ली मुख्यालय समेत तमाम पार्टी दफ्तर पिछले कुछ सालों में आम कार्यकर्ताओं की पहुंच से दूर हुए हैं. ये जमावड़ा ऐसे लोगों का है जो सत्ता लाभ के लिए कतार में लगने को मशहूर हैं. लेकिन पूर्वोत्तर में स्वामी प्रसाद मौर्य और नरेश अग्रवाल जैसे दूसरी पार्टी से लाए नेताओं के सहारे बीजेपी की राजनीति के सवाल पर वो चुप हो गए. पर यह जरूर माना कि इस वक्त बीजेपी का चाल, चरित्र और चेहरा कसौटी पर है.उन्होंने सफाई दी, "सिर्फ इस एक आधार पर यूपी से पूर्वोत्तर की तुलना करना ठीक नहीं है."

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यह बड़ा सवाल है कि क्या वाकई सत्ता की घुड़दौड़ में 'पार्टी विद डिफरेंस' का तमगा बीजेपी से कहीं पीछे बहुत पीछे छूट चुका है?

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