इस साल हुए लोकसभा के चुनाव इस बात के लिए भी याद रखे जाएंगे कि कई जातिवादी नेता चारों खाने चित्त हो गए. उनकी पार्टियों की धज्जियां उड़ गईं और वे अनाथ से हो गए. उनके पास की सबसे बड़ी धरोहर छिन गई. ऐसे नेताओं में एक हैं अजीत सिंह जो अपने पिता चौधरी चरण सिंह की विरासत और अपनी जाति के आधार पर मजे से सत्ता का आनंद लेते रहे.
केन्द्र में चाहे किसी भी पार्टी की सरकार रहे, अजीत सिंह अपनी पार्टी के मुट्ठी भर सांसदों के बल पर मंत्री बनते रहे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाकों में वे अपनी जाति के शीर्ष नेता माने जाते थे. उस इलाके में उनके पिता स्व. चरण सिंह का नाम आज भी आदर से लिया जाता रहा है. चौधरी चरण सिंह सच्चे किसान नेता थे और उन्होंने उनके भले के लिए कई कदम उठाए. किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए वे हमेशा आवाज उठाते रहे.
ग्रामीण परिवेश के होते हुए भी उन्होंने अपने बेटे अजीत सिंह को उच्च शिक्षा पाने के लिए विदेश भेजा. अजीत सिंह ने इंजीनियरिंग की उच्च शिक्षा ग्रहण की और लगा कि वे अपने पिता की इच्छा के मुताबिक इस फील्ड में कुछ कर दिखाएंगे. लेकिन अजीत सिंह ने एक आसान सा रास्ता चुना जिसमें प्रसिद्धि भी थी और पैसा भी. उन्होंने राष्ट्रीय लोक दल नाम की पार्टी बना ली. वह सांसद बने, मंत्री बने और कई बार चुनाव जीते. उनके लिए चुनाव लड़ना बेहद आसान था क्योंकि अपनी जाति के लोगों पर उनका वर्चस्व था. हालत यह रही कि उन्होंने विदेश में पढ़े बेटे को भी राजनीति में उतार दिया. लेकिन इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए दंगों से उनका जनाधार खिसक गया. हालत इतनी बुरी था कि उन्हें और उनके बेटे को लोक सभा चुनाव बुरी हार का सामना करना पड़ा.
ऐसा लगा कि उनका राजनीतिक संन्यास हो गया है. लेकिन अब उन्होंने चरण सिंह के नाम का मोहरा फिर फेंका है. इस बार उन्होंने घटिया राजनीति का सहारा लिया है. जिस शानदार बंगले में वह 30 साल ठाठ से रहते आए उसे वे पराजय के बाद खाली करने को तैयार नहीं थे. उन्हें लगा कि इसे खाली करने से उनकी प्रतिष्ठा पर आंच आएगी. इसलिए उन्होंने उस बंगले को चरण सिंह का स्मारक बनाने की मांग करके पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक आंदोलन शुरू करवा दिया.
वह एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं. एक तरफ तो उस शानदार बंगले पर कब्जा और दूसरी तरफ जाटों के वोटों को अपनी ओर करना. वो जाट जो उनसे दूर जा चुके थे, वे लौटकर उनके खेमे में आ जाएं इसके लिए उन्हें बैठे-बिठाए मुद्दा मिल गया. उन्होंने इस मुद्दे को हवा देनी शुरू कर दी है. दिल्ली चलो से लेकर दिल्ली को पानी न देने की धमकी देने जैसी चालों पर वे काम कर रहे हैं. हल्की राजनीति का यह बेहतरीन उदाहरण है.
हैरानी तो इस बात की है कि चरण सिंह को गुजरे हुए आज लगभग 29 साल होने जा रहे हैं लेकिन अजीत सिंह को कभी यह नहीं लगा कि उनकी याद में एक बड़ा स्मारक बनाया जाए. उनकी प्रसिद्धि और उनके सुकर्मों की वजह से वे आज यहां तक पहुंचे लेकिन उन्होंने अपने पिता की याद में कुछ ऐसा नहीं किया. जाहिर है उसमें उनके अपने पैसे खर्च होते. ऐसे में सरकारी खर्च से स्मारक बनवाने में उन्हें हिचक नहीं.
भारत में व्यक्ति पूजा का यह एक और उदाहरण है. सरकार को इस तरह की मांग नहीं माननी चाहिए. ऐसा करने से आगे भी इस तरह की मांग सामने आती रहेगी.