उत्तर प्रदेश के विवादित नेता आज़म खान ने एक बार फिर ऐसा बयान दिया है, जिसे सुनकर हर कोई हैरान रह जाएगा. सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए वह कुछ न कुछ बोलते रहते हैं. अब उन्होंने करगिल युद्ध का इतिहास ही बदल दिया है. उनका कहना है कि करगिल युद्ध हिन्दुओं ने नहीं, मुस्लिम फौजियों ने जीता था.
अगर सच्चाई यही है तो यह खुशी की बात है. इस देश के अल्पसंख्यकों ने बहादुरी और जोश का जो परचम लहराया है, उसे भला कौन भूल सकता है. 1965 युद्ध के हीरो हवलदार अब्दुल हमीद को कभी भुलाया जा सकता है क्या? उस जाबांज योद्धा ने दुश्मनों के छक्के छुड़ाकर देश के लिए अपनी जान दे दी थी. कैप्टन हनीफुद्दीन ने जो जोश और वीरता करगिल में दिखाई और जिसके लिए देश के उस सपूत को वीर चक्र मिला, उसे भला कौन भुला सकता है. लेकिन आज़म खान का इरादा यह कहने का नहीं था. वह तो इस मामले को साम्प्रदायिक तूल देना चाहते हैं. उनके बयान से तो यह झलकता है कि वह जान पर खेल जाने वाले उन सैनिकों को छोटा दिखाना चाहते हैं, जिन्होंने वीरता और युद्ध कौशल में नए मानदंड स्थापित किए हैं.
सैनिकों और सेना के बारे में कोई भी गैरजिम्मेदाराना बयान देने से पहले हर किसी को सोच लेना चाहिए कि वह कितना बड़ा अन्याय करने जा रहा है. हमारे सैनिकों पर हमें नाज है और हो भी क्यों न? भारतीय सेना का इतिहास बेहद गौरवशाली है और दूसरों पर पहले हमला न करने की नीति पर चलते हुए उन्होंने हमेशा ग़ज़ब की बहादुरी दिखाई है. इसमें हर धर्म-मज़हब के लोग हैं और वे यह सब भूलकर अपनी वीरता समय-समय पर दिखाते रहते हैं. किसी धर्म या जाति के आधार पर इसे बांटना इसे कलंकित करने जैसा है और आज़म खान ने ऐसा ही किया है. उन्होंने घटिया राजनीति के तहत भारतीय सेना की शानदार परंपराओं का अपमान किया है.
वह व्यक्ति, जो भारतीय सेना और उसके जवानों के बारे में अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करता है, देश का प्रिय कतई नहीं हो सकता है. ऐसे लोगों की घोर निंदा की जानी चाहिए. ऐसे लोग एक मजबूत और अखंडित भारत को चोट पहुंचाने का काम करते हैं. सेना को राजनीति से दूर रखना हम सभी का कर्तव्य है. इसे जनता की बहस का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता है. दुनिया की सबसे साहसी और बहादुर सेनाओं में से एक भारतीय सेना पर कोई भी अवांछित टिप्पणी उन हजारों शहीदों का अपमान होगा, जो हंसते-हंसते जान पर खेल गए.