चार राज्यों में विधानसभा की सीटों के लिए उपचुनाव के परिणाम आ गए हैं. इनसे एक बात तो जाहिर है कि मोदी की वो लहर जिसने पूरे भारत को झकझोर दिया था, अब नहीं दिख रही है. बिहार में लालू-नीतीश गंठबंधन को काफी सफलता मिली है तो कर्नाटक में बीजेपी को करारा धक्का लगा है.
बिहार में इस गठबंधन ने बीजेपी की कुछ सीटें छीन लीं, जिनमें भागलपुर की सीट है. इस सीट पर बीजेपी की हार इसलिए भी हैरान कर देने वाली है कि यह शहर दशकों से जनसंघ और बाद में बीजेपी का गढ़ रहा है. यहां उसके अलावा अन्य पार्टियों को जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है लेकिन इस बार बीजेपी बहुत आसानी से यह सीट हार गई. न तो पार्टी ने कोई ढंग का उम्मीदवार खड़ा किया और न ही धुआंधार प्रचार किया. कमजोर उम्मीदवार और जनता से नेतृत्व की दूरी उसकी हार का कारण बन गई. पार्टी ने वहां लोकसभा की सीट भी गंवा दी थी और उसके बावजूद उससे कोई सबक नहीं सीखा. उन्होंने उम्मीदवारों के चयन में जरा भी विवेक से काम नहीं लिया और जनता से भी पूरा संवाद बनाए नहीं रखा.
इसके विपरीत लालू-नीतीश गठबंधन ने हर कदम सोच-समझकर उठाया. उन्होंने साम्प्रदायिकता के आधार पर वोटों को बंटने न देने के लिए एक भी अल्पसंख्यक को टिकट नहीं दिया. दूसरी ओर वहां बीजेपी में नेतृत्व का संकट दिखता है और वोटर वर्तमान शीर्ष नेताओं से खुश नहीं दिखते.
बिहार में टिकटों के बंटवारे को लेकर भी पार्टी के नेताओं के बारे में काफी बातें कही गईं. ऐसा लगता है कि बीजेपी की राज्य इकाइयों में अतिविश्वास की भावना भर गई है तभी तो कर्नाटक में वह बेल्लारी ग्रामीण की सीट हार गई.
इस सीट को कांग्रेस ने झटक लिया जबकि पार्टी उम्मीद कर रही थी कि वहां वह फिर सत्ता में काबिज होने की ओर अग्रसर है. कर्नाटक में तो उसके विद्रोही नेता येदियुरप्पा पार्टी में वापस आ गए हैं. इसके बावजूद पार्टी उपचुनाव में एक महत्वपूर्ण सीट हार गई. यह पार्टी के लिए चिंता का विषय हो सकता है क्योंकि वह राज्य में फिर से वापसी की अपेक्षा कर रही है.
बीजेपी के लिए यह संतोष का विषय हो सकता है कि उसने मध्य प्रदेश में अपना दबदबा बनाए रखा है और शिवराज सिंह ने विपक्षी दल कांग्रेस को धूल चटा दी और अपना वर्चस्व स्थापित किया. उन्होंने अपनी पकड़ और मजबूत कर ली. इसी तरह पंजाब में अकाली दल और कांग्रेस में बराबरी का मुकाबला रहा. फिलहाल वहां के बारे में अभी कोई निष्कर्ष निकालना गलत होगा.
बिहार में विधान सभा चुनाव में ज्यादा वक्त नहीं है. विधान सभा चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए खतरे की घंटी की तरह है. बात साफ है कि लोकसभा चुनाव में जनता ने जहां नरेन्द्र मोदी के लिए हामी भरी थी वहीं इन चुनावों में ऐसा कुछ नहीं था बल्कि लोग स्थानीय मुद्दों पर वोट दे रहे हैं. उपचुनावों के नतीजों से मुख्य चुनाव के बारे में कभी भी निष्कर्ष नहीं निकाले जाते हैं लेकिन फिर भी बीजेपी की राज्य इकाई को फिर से सोचना होगा कि कहां और क्या गलत हुआ.