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Opinion: क्या सारा दोष राहुल गांधी का ही है?

पोस्ट पोल रिजल्ट के बाद अब जबकि यह तय दिखता है कि कांग्रेस का लोकसभा चुनाव में सूपड़ा साफ होने वाला है, हार का ठीकरा किसी के सिर फोड़ने की तैयारी हो रही है. राहुल गांधी के विरोधी और मीडिया का एक सेक्शन राहुल गांधी को इसके लिए जिम्मेदार बताने में जुटा हुआ है.

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राहुल गांधी
राहुल गांधी

पोस्ट पोल रिजल्ट के बाद अब जबकि यह तय दिखता है कि कांग्रेस का लोकसभा चुनाव में सूपड़ा साफ होने वाला है, हार का ठीकरा किसी के सिर फोड़ने की तैयारी हो रही है. राहुल गांधी के विरोधी और मीडिया का एक सेक्शन राहुल गांधी को इसके लिए जिम्मेदार बताने में जुटा हुआ है.

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उनका कहना है कि इस बुरी पराजय के लिए वही जिम्मेदार हैं. दूसरी ओर पार्टी के नेता इसकी सामूहिक जिम्मेदारी लेने को आतुर हैं. राहुल के आलोचकों का यह मानना है कि उन्होंने न तो वह गंभीरता दिखाई और न ही वह रणनीति बनाई जो इस महासंग्राम के लिए जरूरी है. उनमें काफी कमियां रहीं और वे सही समय पर कोई बड़ा कदम नहीं उठा पाए. उनकी शैली छापामार योद्धाओं की तरह थी और इसलिए वह आमने-सामने की लड़ाई में मात खा गए.

इसके विपरीत उनके समर्थक कहते हैं कि इसमें उनका कोई दोष नहीं, वे तो राजनीति में नए हैं. उन पर दोष मढ़ना उचित नहीं है और वह इसके लिए कतई जिम्मेदार नहीं है. तो फिर सच्‍चाई क्या है? यह बात तो चुनाव की रणभेरी बजते ही साफ हो गई थी कि सोनिया गांधी ने एक स्ट्रैटिजी के तहत ही राहुल गांधी को पार्टी का पीएम कैंडिडेट नहीं बनाया था. उन्हें इस बात की आशंका थी कि अगर पार्टी हार जाती है तो राहुल इसके लिए जिम्मदार माने जाएंगे और इसका असर उनके भविष्य पर पड़ेगा.

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उन्हें कांग्रेस के शीर्ष नेता के तौर पर तो प्रोजेक्ट किया गया लेकिन पीएम कैंडिडेट शब्द से परहेज किया गया. लेकिन अब लगता है कि यह एक गलत कदम था. उन्हें पीएम कैंडिडेट के तौर पर ही उतारा जाना चाहिए था और तब पार्टी में एक ठोस नेतृत्व दिखता जिसकी इस चुनाव में काफी कमी खली. दरअसल कांग्रेस की एक खासियत रही है कि उसके नेता और कार्यकर्ता हमेशा शीर्ष नेतृत्व की ओर नजरें गड़ाए रहते हैं और वहां से ही शक्ति लेते हैं. उन्हें लगता है कि शक्तिस्रोत गांधी परिवार ही है. ऐसे में वे अपनी ताकत उन्हें ही दिखाते रहते हैं. उन्हें इसमें फायदा दिखता है और लगता है कि इस राजभक्ति का उन्हें प्रतिदान मिलेगा. इसी कृपा को पाने के लिए वे अपनी पूरी ताकत लगाते हैं.

पिछले डेढ़ दशकों से कांग्रेस के तमाम नेताओं की वफादारी जनता की ओर कम और 10 जनपथ की ओर ज्यादा रही. बहुत कम लोगों को याद होगा कि पिछले साल राहुल गांधी ने यूपी से चुने गए अपने सांसदों के कहा था कि वे दिल्ली में रहने की बजाय अपने निर्वाचन क्षेत्रों मे ज्यादा से ज्यादा वक्त बिताएं लेकिन सभी ने अनसुनी कर दी. उसका फल वे तो इस बार भुगतेंगे ही, पार्टी भी भुगतेगी. दरअसल राहुल गांधी के कृपा पात्र तो सभी बनना चाहते थे लेकिन उनके बताए रास्ते पर कोई नहीं चलना चाहता था. यह हालत सिर्फ यूपी की नहीं थी, हर राज्य में ऐसा हुआ. कांग्रेस के बड़े नेता और ज्यादातर सांसद जनता के पास रहने की बजाय दिल्ली या बड़े शहरों में डेरा जमाए दिखते थे.

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यानी जनता से दूर. मार्केटिंग की दुनिया में एक कहावत है, जो दिखता है वो बिकता है. यह बात अब चुनावी राजनीति में भी लागू होती है. पार्टी के ज्यादातर सांसद जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे तो इसमें राहुल गांधी का क्या दोष?

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