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Opinion: कांग्रेस गंभीर जड़ता का शिकार हो गई

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस बदलाव के लिए अभी भी तैयार नहीं दिखती. पार्टी ने लोकसभा चुनाव में जो करारी शिकस्त झेली है, उससे लगा था कि वह अपने को समय के अनुसार बदलेगी. लेकिन नहीं. अभी भी वहां कुछ नया, क्रांतिकारी या अभूतपूर्व सा होता नहीं दिखता है.

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सोनिया गांधी
सोनिया गांधी

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस बदलाव के लिए अभी भी तैयार नहीं दिखती. पार्टी ने लोकसभा चुनाव में जो करारी शिकस्त झेली है, उससे लगा था कि वह अपने को समय के अनुसार बदलेगी. लेकिन नहीं. अभी भी वहां कुछ नया, क्रांतिकारी या अभूतपूर्व सा होता नहीं दिखता है.

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पार्टी महासमुद्र में भटकी नौका सा व्यवहार कर रही है. उसे पता नहीं है कि उसे जाना कहां है. इतनी बड़ी हार के बाद लोगों को लगता था कि पार्टी एक नए सिरे से अपने को तैयार करेगी. लेकिन पार्टी में इतना निर्णय है कि उसे कुछ नहीं सूझ रहा है. कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी हैं कि पार्टी का भार उठाने में कोई खास दिलचस्पी नहीं रखते. वे लोकसभा में पार्टी के नेता बनने को तैयार नहीं थे लिहाजा मल्लिकार्जुन खड़गे को नेता बना दिया गया. खड़गे भले ही एक कुशल सांसद और सुलझे हुए नेता हों लेकिन पार्टी में उनसे बेहतर और तेजतर्रार नेताओं की कमी नहीं है. लेकिन ऐसा लगता है कि सोनिया गांधी के सलाहकारों ने यह नाम चुना है. यहां पर एक शब्द सोनिया गांधी के सलाहकारों के बारे में भी कहना जरूरी है.

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ये सलाहकार पर्दे के पीछे से काम करने वाले मुट्ठी भर लोग हैं. ये जमीनी नेता नहीं हैं और उनका वोट की राजनीति से कभी वास्ता भी नहीं रहा. ऐसे लोग सोनिया गांधी को कैसी राय देते होंगे, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. जहां तक राहुल गांधी की बात है तो वह पार्टी में सक्रिय नेता की भूमिका निभाने में ज्यादा रुचि नहीं रखते हैं और ऐसे में उन्होंने भी इस पसंदगी पर चुप्पी साधे रखी.

बेहतर होता पार्टी एक लोकतांत्रिक तरीके से लोक सभा में नेता का चुनाव करती. लेकिन ऐसा करना कांग्रेस की परंपरा नहीं है. बंद कमरों से जारी फरमान पर यह पार्टी चलती है और इसलिए इस महासंकट का कोई हल ढूंढ़ नहीं पा रही है. वहां पराजय के बाद पार्टी का पुनर्गठन करने की किसी को कोई जल्दी नहीं है. पार्टी में एक विद्रोह पनप रहा है. नई विचारधारा और पुरानी सोच के बीच एक टकराव साफ दिखाई दे रहा है. लेकिन पार्टी आला कमान की ओर से कोई भी पहल होती नहीं दिख रही है. ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार की ही तरह कांग्रेस भी पॉलिसी पैरालिसिस का शिकार हो गई है.

सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि पार्टी वंशवाद से मुक्ति पाने का कोई प्रयास भी नहीं कर रही है, हालांकि कई महत्वपूर्ण नेता इस तरह के संकेत दे रहे हैं. वे चाहते हैं कि पार्टी इस ओर सोचे और अपनी जड़ें मजबूत करे ताकि आने वाले समय में वह अपने बूते चुनाव लड़ सके. जो लोग या संस्थाएं दीवार पर लिखी इबारत नहीं पढ़ पाते हैं उनका भविष्य अंधकारमय होता है. यही हाल कांग्रेस का है क्योंकि गांधी परिवार में अब करिश्माई व्यक्तित्व वाला कोई सदस्य नहीं है और न ही मौलिक विचारों वाला राजनीतिज्ञ. जाहिर है यह पार्टी अपने सदस्यों की सोच और उनकी मेहनत से ही उठ पाएगी. लेकिन यह सब होगा कैसे? घूम-फिर कर बात सोनिया गांधी के सलाहकारों पर आती है जो पर्दे के पीछे से देश चलाते हैं और जिनका अपना अजेंडा है. तो इंतजार कीजिए कि पार्टी कब और कैसे अपना अगला और बड़ा कदम उठाती है.

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