दिल्ली के विधानसभा चुनाव होने में अब एक हफ्ते से थोड़ा ही ज्यादा वक्त रह गया है और माहौल में चुनावी युद्धघोष साफ सुनाई दे रहा है. इस चुनाव में भी कांग्रेस एक मामूली पार्टी के तौर पर खड़ी है, जबकि लड़ाई सीधे तौर पर बीजेपी और केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के बीच है.
पिछले चुनाव में ही हमने आम आदमी पार्टी की हुंकार सुनी थी और उसका दम देखा था. लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी पत्ते की तरह उड़ गई थी और उसे दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली. सात की सातों सीटें लहर में बीजेपी ले उड़ी थी. इस झटके को आम आदमी पार्टी ने बड़ी संजीदगी से लिया और फिर वह लगातार चुनाव प्रचार या यूं कहें कि बीजेपी पर वार करती रही.
पार्टी के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता लगातार जनता से जुड़े रहे और उनकी समस्याएं सुनते रहे, जबकि बीजेपी की दिल्ली इकाई बंटे हुए घर की तरह थी, जिसमें आपसी तालमेल और प्रतिबद्धता नहीं दिखाई दी. हर नेता की अपनी सोच थी. सच तो है कि मदनलाल खुराना और साहब सिंह वर्मा के बाद बीजेपी को दिल्ली में कद्दावर नेता नहीं मिला. पार्टी के कई नेता अपने-अपने ढंग से काम करते रहे. उसका ही नतीजा था कि कांग्रेस विरोधी लहर में भी पार्टी दिल्ली में सत्ता में नहीं आ सकी.
बहरहाल अब बीजेपी जागी है. किरण बेदी को सीएम उम्मीदवार बनाने से उसकी मुसीबतें कम होने की बजाय बढ़ी ही हैं. पार्टी में अंदरूनी खींचतान बढ़ गई है. बेदी एक ईमानदार ऑफिसर रही हैं और राजधानी में उनकी छवि बहुत ही बढ़िया है, लेकिन वोटरों को आकर्षित करने में वे उतनी सफल नहीं हो पा रही हैं. दिल्ली के झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाकों में उनकी पकड़ बहुत कम है और वहां आम आदमी पार्टी ने पहले से पैर जमा लिए हैं.
ज़ाहिर है कि पार्टी में अब एक अजीब सा माहौल है. लेकिन जिस तरह से वह अपनी सारी शक्ति झोंक रही है, उससे तो लगता है कि वह घबरा गई है. दरअसल यह घबराहट तो उसी दिन से है, जब पीएम मोदी की सभा में कुर्सियां नहीं भरीं. अब पार्टी के सर्वेसर्वा अमित शाह खुद ही कूद पड़े हैं, जिससे मामले की गंभीरता का पता चलता है. ऐसा लग रहा है कि कहीं न कहीं पार्टी के मन में संशय है. और अगर उसे यह चुनाव जीतना है, तो सबसे पहले अपने घर को सुव्यवस्थित करना होगा, नहीं तो राजधानी में उनकी किरकिरी हो जा सकती है. अपने सभी प्रमुख नेताओं को साथ लेकर चलने का वक्त आ गया है. इसमें कोताही महंगी पड़ेगी.