जामा मस्जिद के शाही इमाम अकसर विवाद पैदा करते हैं लेकिन इस बार उन्होंने अपने नौजवान बेटे शाबान को नायब इमाम का पद देने के अवसर पर उन्होंने जिन वीआईपी मेहमानों को बुलाया है उनमें नरेन्द्र मोदी के नाम का न होना हैरान करने वाली है. उन्होंने देश के कई नेताओं को बुलाया है जिसमें बीजेपी के चार नेता भी हैं. शाही इमाम ने कहा है कि उन्होंने मोदी को न बुलाने का फैसला इसलिए किया है क्योंकि पीएम ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया है और गुजरात दंगों के लिए उन्हें माफ नहीं किया गया है.
यह बात हैरान नहीं करती क्योंकि कई बार और कई मंचों से यह कहा जा चुका है. लेकिन जो बात हैरान करती है वह ये है कि इमाम ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को इसमें आमंत्रित किया है. यह देखते हुए कि पीएम मोदी ने भी अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को बुलाया था, इस आमंत्रण की कोई निंदा नहीं की जा सकती. लेकिन यह देखते हुए कि अल्पसंख्यकों के मामले में पाकिस्तान का रिकॉर्ड बेहद खराब है, वहां के प्रधान मंत्री को बुलाना गैरवाजिब होगा. पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की हालत कितनी खराब है यह किसी से छुपा नहीं है. उनकी खुले आम हत्या हो रही है और उनकी बहू-बेटियां घर से निकलने में कतराती हैं. हिन्दू-ईसाई ही नहीं अहमदिया मुसलमानों और शियाओं की हालत खराब है. उनके हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा जा चुका है.
अगर शाही इमाम अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय का मुद्दा उठाते हैं तो उन्हें नवाज शरीफ का रिकॉर्ड जरूर देखना चाहिए जो आंखें मूंदे पड़े हैं. एक ही मुद्दा पर दो पैमाने नहीं हो सकते. लेकिन एक और मामला है जिसकी तरफ लोगों की नजर जा रही है. वह यह कि शाही इमाम यह कैसे तय कर सकते हैं कि जामा मस्जिद का अगला शाही इमाम कौन बनेगा? यह बात उनके सगे भाई याहिया बुखारी ने ही उठाई है और उन्होंने इस बात के लिए सैयद बुखारी की आलोचना भी की है. उनका कहना है कि अपने बेटे शाबान को अपना उत्तराधिकारी बनाकर सैयद बुखारी ने एक परंपरा तोड़ी है जबकि बनना किसी और को चाहिए था.
दरअसल जामा मस्जिद की व्यवस्था के लिए एक ट्रस्ट काम करता है और सभी जानते हैं कि वह सिर्फ दिखावा है. वहां होता वही है जो शाही इमाम चाहते हैं. यही कारण है कि आज तक उस इलाके का सही विकास नहीं हुआ. 1656 में बनी इस अद्भुत मस्जिद को देखने सारी दुनिया से लोग आते हैं लेकिन वहां पहुंचकर आस-पास की स्थिति देखकर उन्हें निराशा होती है. इस दिशा में शाही इमाम और उनके पिता ने भी कोई कदम न तो उठाया और न किसी को उठाने दिया. अदालत के हस्तक्षेप के बाद कुछ बदलाव आया है. लेकिन यह यहां मुद्दा नहीं है. मुद्दा है शाही इमाम की सियासत का जो कोई भी मौका नहीं छोड़ते. वह इस तरह के शगूफे छोड़कर खबरों में बने रहना चाहते हैं और अपना महत्व भी बढ़ाए रखना चाहते हैं. लेकिन इस मामले में उनकी छीछालेदारी ज्यादा हो रही है.