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Opinion: दिल्ली के दंगल में किरण बेदी

दिल्ली विधान सभा के चुनाव में बीजेपी ने बड़ा धमाका करते हुए पूर्व आईपीएस ऑफिसर किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करके एक सनसनी फैला दी. सनसनी इसलिए कि पार्टी ने विपक्षी दलों द्वारा शासित किसी भी राज्य में सीएम पद के दावेदार की घोषणा नहीं की थी लेकिन यहां ऐसा किया. इसे पार्टी की जीत के लिए उठाया गया बड़ा कदम कहा जाए याफिर घबराहट?

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दिल्ली विधान सभा के चुनाव में बीजेपी ने बड़ा धमाका करते हुए पूर्व आईपीएस ऑफिसर किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करके एक सनसनी फैला दी. सनसनी इसलिए कि पार्टी ने विपक्षी दलों द्वारा शासित किसी भी राज्य में सीएम पद के दावेदार की घोषणा नहीं की थी लेकिन यहां ऐसा किया. इसे पार्टी की जीत के लिए उठाया गया बड़ा कदम कहा जाए या फिर घबराहट?

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अब तक पार्टी का यही स्टैंड रहा कि वह सीएम उम्मीदवार का नाम न घोषित करे बल्कि बाद में तय करे कि कौन मुख्य मंत्री बनेगा. यह हरियाणा में भी हुआ और झारखंड में भी. दिल्ली में भी ऐसा ही होता दिख रहा था लेकिन अचानक सब कुछ बदल गया. बीजेपी ने किरण बेदी को सीएम पद का दावेदार बना दिया. अब जंग सीधे दो पुराने साथियों और एक्टिविस्ट के बीच है. दोनों ही पूर्व नौकरशाह अपनी ईमानदारी और जुझारूपन के लिए जाने जाते हैं और वे अन्ना के आंदोलन से सीधे जुड़े रहे हैं.

बहरहाल सवाल है कि इसे हताशा में या हार की आशंका में उठाया गया कदम माना जाए या फिर एक रणनीति? इसका जवाब इसमें ही है. दोनों ही बातें फिलहाल सही लग रही हैं. केजरीवाल की साफ सुथरी छवि के तोड़ के जवाब में बीजेपी ने बेदी को उतारा है. लेकिन सीधे मुख्य मंत्री पद का दावेदार बना देना कई तरह की अटकलों को जन्म देता है. पार्टी के लिए दिल्ली के चुनाव प्रतिष्ठा का मामला है.

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पीएम मोदी दिल्ली में यानी ठीक अपनी नाक के नीचे दूसरी पार्टी का शासन नहीं देखना चाहेंगे और इसलिए उनके विश्वस्त अमित शाह ने इस लड़ाई में तुरुप का पत्ता फेंका है. इससे पार्टी जीत की उम्मीद तो कर सकती है लेकिन उसके कार्यकर्ताओं और खासकर उन नेताओं पर जो वर्षों से पार्टी में जुड़े रहकर सपने बुन रहे थे, क्या गुजरी है? क्या सारे सांसद और विधायक उनका साथ दे देंगे? क्या पार्टी इन चुनावों में एकजुटता दिखा पाएगी?

सवाल कई सारे हैं और इनके जवाब आसान नहीं होंगे. पार्टी को अब एक और जंग जीतनी होगी और वह अपने नाराज नेताओं को साथ ले कर चलने की है. उसके बगैर वह चुनाव जीतने की सोच भी नहीं सकती. पार्टियों में भितरघात मामूली बात है और जिन लोगों ने दिल्ली विधान सभा का पिछला चुनाव देखा है, उन्हें पता होगा कि क्यों राजधानी में शीला विरोधी लहर के बाद भी पार्टी सत्ता में नहीं पहुंच पाई.

अब भविष्य ही बताएगा कि किरण बेदी बीजेपी की नाव को पार करवा सकती हैं या नहीं. फिलहाल तो रणभेरियों की गूंज सुनिए. लेकिन केजरीवाल यह तो कह ही सकते हैं कि यह उनकी उपस्थिति थी कि बीजेपी को एक बेहद ईमानदार उम्मीदवार उतारना पड़ा और दिल्ली की राजनीति में एक बदलाव आया.

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