कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी आज संसद में भड़क गए. लोकसभा में अपनी टीम की अगुवाई करते हुए वे स्पीकर के आसन के पास पहुंच गए और सदन की कार्रवाई में बाधा डाली. उनकी मांग थी कि देश में बढ़ती हुई साम्प्रदायिक हिंसा पर तुरंत बहस कराई जाए.
उन्होंने एक दिन में दो बार अपनी आवाज बुलंद की जो हैरतअंगेज है. उनकी शह पर उनके पार्टी के लोगों ने भी खूब शोर मचाया और सरकार के विरोध में नारे लगाए. राहुल गांधी ने वहां यह भी कहा कि स्पीकर पक्षपात कर रही हैं. उन्होंने यह भी कहा कि इस समय देश में कहा जा रहा है कि सिर्फ एक आदमी की बात सुनी जा रही है. राहुल के तेवर और आक्रामक बोल हैरान कर देने वाले हैं क्योंकि लोक सभा स्पीकर के खिलाफ अमूमन वरिष्ठ सांसद ऐसी टिप्पणी नहीं करते.
एक नजर में ऐसा लगता है कि राहुल अपनी पार्टी ही नहीं संपूर्ण विपक्ष की आवाज बनने की चेष्टा कर रहे हैं और बीजेपी को कड़ी टक्कर देने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन अगर ध्यान से देखें तो लगता है कि राहुल गांधी की निगाहें कहीं और हैं. दरअसल नटवर सिंह की किताब ने उनके और सोनिया गांधी के नेतृत्व पर गंभीर सवाल उठाए हैं. नटवर सिंह ने तो साफ कह दिया था कि राहुल के अंदर राजनीति के लिए आग नहीं है. यानी उनमें वह ऊर्जा नहीं है जो इस पद पर बैठे व्यक्ति में होनी चाहिए. इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कह डाला था कि राजनीति कोई पार्ट टाइम जॉब नहीं है. जाहिर है जब पार्टी के एक बहुत पुराने और मंजे हुए नेता ऐसी बात कहेंगे तो चोट लगेगी ही.
राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल खड़े होने लगे थे और गाहे-बगाहे पार्टी के नेता उन पर कुछ न कुछ टिप्पणी कर रह थे. ऐसे में चुप बैठना राहुल गांधी के लिए मुश्किल था क्योंकि इससे नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व की क्षमता पर सवाल उठने लग जाते. और ऐसा होने भी लगा था. चुनाव में करारी शिकस्त के बाद पार्टी में राहुल की योग्यता पर ही सवाल उठने लगे हैं. राहुल को अपनी क्षमता और अपना जो़श दिखाने का समय आ गया था. अगर यह अवसर वह चूकते तो तीर उनके हाथ से निकल जाता. उन्होंने वही किया. बीजेपी पर हमला बोलने के लिए उन्होंने स्पीकर को निशाना बनाया. जो लोग सदन के काम करने के तरीके को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि बिना नोटिस दिए वहां खड़े-खड़े चर्चा नहीं होती.
फिर, देश में साम्प्रदायिक हिंसा में अभी बढो़तरी कहां हुई है? उत्तर प्रदेश में यह सिलसिला काफी समय से चल रहा है. वहां के विधान सभा में चर्चा की मांग उनकी पार्टी ने क्यों नहीं की? बहरहाल यह साफ है कि राहुल गांधी अपने को पार्टी के शीर्ष नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं. उनके राजनीतिक जीवन के लिए यह अस्तित्व का सवाल है क्योंकि चारों खाने चित्त उनकी पार्टी को उठाने के लिए उन्हें ही जंग लड़नी होगी. अब उनके पास न तो वक्त है और न ही कोई विकल्प. यह अच्छी बात है कि उन्होंने देर से ही सही, मोर्चा संभाल लिया है. डेढ़ सौ साल पुरानी पार्टी को एक जुझारू नाविक की जरूरत है और राहुल गांधी इस भूमिका को निभाने के लिए कूद पड़े हैं. इंतजार कीजिए उनके अगले कदम या कदमों का!