राज ठाकरे राजनीति के कोई बहुत चतुर खिलाड़ी नहीं हैं. अपने चाचा बाला साहेब ठाकरे के नक्शे कदम पर चलते हुए उन्होंने उसी किस्म की राजनीति की. मराठी मानुष की अस्मिता का मुद्दा उठाकर वह आगे बढ़े. उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने किसी तरह का निर्माण करने की बजाय निरीह उत्तर भारतीयों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा. इस तरह से उन्होंने एक भय का माहौल पैदा किया और संकीर्ण मानसिकता के लोगों का दिल जीता. लेकिन धीरे-धीरे उनकी यह नीति उतनी फलदायी नहीं रही.
लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी ने उद्धव ठाकरे की शिवसेना से हाथ मिला लिया तो राज खामोश रहे. वे हवा का रुख भांपने में लगे रहे. लेकिन जब चुनाव के परिणाम आए तो उन्हें हैरानी के सिवा कुछ हाथ नहीं आया. उसके बाद से वह एक मौका तलाश रहे थे. विधानसभा चुनाव के आते ही वह सक्रिय हो गए. उन्हें उम्मीद थी कि बीजेपी उन्हें अपने साथ लेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बीजेपी ने उनसे किनारा कर लिया और शिवसेना से समझौते की बातचीत करने लगी. लेकिन बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा. दोनों पार्टियों में नहीं बनी और दोनों अलग-अलग चुनाव लड़ने को तैयार हो गईं.
राज ठाकरे ने इस अवसर का इस्तेमाल अपनी राजनीति को चमकाने के लिए करना शुरू कर दिया है. वह मराठी मानुष का पत्ता तो खेल ही रहे हैं, शिवसेना को पूरी तरह से बीजेपी से अलग कर देना चाहते हैं. उनका दांव बहुत साफ है. वह चाहते हैं कि इन दोनों में पूरी तरह से अलगाव हो जाए ताकि न केवल वोटों का बंटवारा हो बल्कि शिवसेना एक केन्द्रीय शक्ति बनने से वंचित रह जाए. वह इसके लिए बाला साहेब का भी नाम उछालते दिखते हैं और ऐसा जताने की कोशिश करते हैं कि वह उनके बारे में सब कुछ जानते हैं. अगर ऐसा ही था तो वह यह क्यों नहीं समझ पाए कि बाला साहेब उन्हें नहीं उद्धव को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने जा रहे हैं?
जाहिर है यह एक नियोजित राजनीति है जो राज कर रहे हैं. उनका इरादा है कि दोनों पार्टियां एक दूसरे से दूर हो जाएं और सरकार बनाने में साथ नहीं रहें. इससे चुनाव के बाद के बाजार में उनके भाव ऊंचे रहेंगे. दोनों में जितना दुराव होगा, राज के लिए आगे सबसे बड़ी पार्टी से मोलतोल करना उतना ही आसान होगा. चुनाव के बाद अगर कोई भी पार्टी सत्ता के करीब नहीं पहुंच पाती है तो राज के लिए सुनहरा मौका होगा. महाराष्ट्र की राजनीति में वह जगह बनाने में असफल रहे हैं. अब उन्हें बड़ा मौका मिला है. वह इसे हाथ से नहीं जाने देंगें और शिवसेना पर प्रहार करते रहें ताकि वह बीजेपी से दूर हो या वैसे कदम उठाए.
लेकिन उद्धव ठाकरे को अब समझ में आने लगा है कि राज की मंशा क्या है. उनके पास एक परिपक्व राजनीतिज्ञ के गुण नहीं हैं. वह राजनीति के मंच पर अभी पूरी तरह से तपे नहीं हैं. यह चुनाव उन्हें बताएगा कि राजनीति क्या होती है. वहां शरद पवार, चव्हाण, राणे वगैरह जैसे धुरंधर राजनीतिज्ञ बैठे हुए हैं जो उन पर पैनी नजर रख रहे हैं. जरा सी भी चूक हुई और उन्होंने उद्धव को चित्त किया. अभी उनके पास बाला साहेब के समर्थकों की सहानुभूति है और उससे ज्यादा कुछ नहीं. वहां के स्थानीय निकायों में उनकी पार्टी सत्तारुढ़ है लेकिन जनता उसके कामकाज से जरा भी खुश नहीं है.
ऐसे में वोटरों से बहुत ज्यादा उम्मीद करना उनके लिए गलत होगा. उन्हें बहुत सोच समझकर पत्ते चलने होंगे क्योंकि सामने प्रतिद्वंद्वी के रूप में उनके भाई ही हैं जो उनकी हर चाल को पहले से ही विफल करने को तैयार हैं.