scorecardresearch
 

Opinion: महाराष्ट्र में बीजेपी-सेना आंखमिचौली

महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना में सीटों के बंटवारे पर जो खींचतान हो रही है उसने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है. इस समय दोनों पार्टियों का कई दशकों का यह गठबंधन टूट के कगार पर है क्योंकि सीटों के बंटवारे पर फैसला नहीं हो पा रहा है.

Advertisement
X
प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर

महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना में सीटों के बंटवारे पर जो खींचतान हो रही है उसने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है. यह इसलिए हैरान करने वाली बात है कि दोनों पार्टियां दुख-सुख में हमेशा साथ रहीं. अपनी हिन्दू विचारधारा के कारण शिवसेना ने हमेशा बीजेपी का साथ दिया. शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे ने कई ऐसे मुद्दे उठाए जो बीजेपी को पंसद नहीं आए लेकिन इसके बावजूद दोनों के बीच गठबंधन बना रहा. लेकिन इस समय दोनों पार्टियों का कई दशकों का यह गठबंधन टूट के कगार पर है क्योंकि सीटों के बंटवारे पर फैसला नहीं हो पा रहा है.

Advertisement

बीजेपी जितनी सीटें मांग रही है, शिवसेना उतनी देने को तैयार नहीं है. उसका कहना है कि महाराष्ट्र में हमेशा शिवसेना सीनियर पार्टनर रही है. लेकिन लोक सभा चुनाव में अपनी अपार सफलता के कारण बीजेपी का रुख बदल गया है. उसने लोकसभा चुनाव में कुल 23 सीटें जीतीं जबकि शिवसेना 18 सीटें ही जीत पाईं. इसलिए अब बीजेपी का कहना है कि दोनों पार्टियां बराबर की स्थिति में हैं और दोनों को बराबर सीटें मिलनी चाहिए जबकि शिवसेना 150 सीटों पर अड़ी हुई है.

इन दोनों पार्टियों के टकराव के कारण उनके सहयोगी दल पसोपेश में हैं और वे कुछ कह नहीं पा रहे हैं. लेकिन कुछ ऐसी भी बातें हैं जो शिवसेना को पसंद नहीं आ रही हैं. मसलन मुंबई की दादर सीट पर बीजेपी का दावा. दादर कभी शिवसेना का गढ़ रहा है. मराठी बहुल इस इलाके में उसने वर्षों तक अपनी कीर्ति पताका फहराई है लेकिन 2009 के विधानसभा चुनाव में वहां शिवेसना पराजित हो गई. अब बीजेपी चाहती है कि शिव सेना यह सीट उन्हें दे दे. इसके अलावा शिवेसना इस बात से भी खफा है कि बीजेपी ने केन्द्र में उसके कम सांसदों को मंत्री बनाया जबकि वादा कहीं ज्यादा का था. उधर बीजेपी लोकसभा चुनाव की दुहाई दे रही है.

Advertisement

इसके अलावा बीजेपी को यह भी पसंद नहीं आ रहा है कि शिवसेना मुख्यमंत्री पद की पहले से दावेदार हो जाए. यह उसकी योजना के विपरीत है. पार्टी का हर बड़ा नेता अपने हिसाब से चल रहा है. गोपीनाथ मुंडे के बाद पार्टी के पास कोई ताकतवर नेता भी नहीं है.

बहरहाल, हालात काफी तनावपूर्ण हैं. हो सकता है कि दोनों में आखिरी क्षणों में कोई समझौता हो जाए और वे मिलकर चुनाव लड़ें. लेकिन बीजेपी को कुछ बातें समझनी होंगी. लोकसभा चुनाव में अपार सफलता को विधानसभा से नहीं जोड़ा जा सकता है. विधानसभा में हमेशा मुद्दे हमेशा अलग होते हैं और वोटरों की सोच अलग होती है. बीजेपी को यह कड़वी सच्चाई का पता पिछले दिनों हुए उपचुनावों में चल गया होगा. लेकिन उसके बावजूद उसने हरियाणा में अपने सहयोगी दल से करार तोड़कर अपने बूते चुनाव लड़ने का फैसला किया है. यह जोखिम भरा फैसला है.

दोनों पार्टियों को इससे नुकसान होगा. हरियाणा जनहित कांग्रेस भले ही राज्य में एक बड़ी ताकत न हो लेकिन उसके साथ मिलकर वह कम से कम वोटों के बंटवारे को रोक सकती है. अगर महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना समझौता नहीं हुआ तो वहां भी पार्टी के लिए सरकार बनाना असंभव सा होगा. यह सही है कि वहां कांग्रेस और एनसीपी में तकरार हो रही है. दोनों पार्टियां ज्यादा से ज्यादा सीटों के लिए लड़ रही हैं. लेकिन उन दोनों पार्टियों में कई धुरंधर राजनीतिज्ञ हैं और वे जनता की नब्ज को जानते हैं. ऐसे में बीजेपी को भारी झटका लग सकता है. बेहतर होगा पार्टी जमीनी सच्चाई को समझकर समझौता कर ले. उनकी जिद उन्हें महंगी पड़ सकती है और सत्ता पाने के सपने तोड़ सकती है. पब्लिक का मिजाज कब बदल जाए, कोई नहीं जानता.

Advertisement
Advertisement