देश में क्रिकेट का बुखार उतरता दिख रहा है. एक के बाद एक मैच हो रहे हैं, लेकिन स्टेडियम खाली पड़े हुए हैं और मैच लाइव दिखाने वाले टीवी चैनलों की टीआरपी गायब है. लोगों को यह भी पता नहीं है कि भारत किसके साथ मैच खेल रहा है या फिर धोनी कप्तानी कर भी रहे हैं या नहीं. न तो लोगों की दिलचस्पी वेस्ट इंडीज के साथ मैचों में दिखी और ना ही श्रीलंका की सीरीज में.
वन डे मैचों में स्टेडियमों का खाली रहना अपने आप में एक बड़ी घटना है. इस देश में क्रिकेट तो धर्म की तरह घर-घर में उपस्थित था, तो फिर यह क्या हुआ? क्यों बच्चों की जुबान पर खिलाड़ियों की प्रशंसा के बोल नहीं हैं? क्यों सीरीज जीत की खबर भी अखबारों के पहले पेज पर पूरी तरह से खबर नहीं बन सकी? क्यों स्कोर जानने वालों की आवाज नहीं सुनाई दे रही है? इसके विपरीत कबड्डी जो कल तक उपेक्षित गेम था, लोगों को रास आने लगा. उसके खिलाड़ियों के फोटो अखबारों में धड़ल्ले से छप रहे हैं. उन पर फीचर किए जा रहे हैं, उनकी चर्चा हो रही है और उनके बारे में जानने के लिए लोग उत्सुक हैं.
हॉकी जो कि खेलप्रेमियों की नजरों से गिर गया था, अब फिर से चर्चा में है. दो जीत के बाद फिर से सुर्खियों में है. लोग खिलाड़ियों के बारे में जानने को उत्सुक हैं और उन्हें फिर से हॉकी के सुनहरे दिनों की याद आ रही है. उधर देसी फुटबॉल लीग आईएसएल के मैच देखने के लिए खेलप्रेमियों की भीड़ उमड़ी पड़ी है. हर मैच में दर्शकों का जमावड़ा दिख रहा है. ऐसा लग रहा है कि वर्ल्ड कप फुटबॉल हो रहा हो! मुक्केबाज मेरीकॉम का नाम हर किसी की ज़ुबान पर है और सानिया नेहवाल की बातें हर जगह हो रही हैं. आखिर ऐसा क्यों हुआ कि भारतीयों की निगाहों से क्रिकेट इतना उतर गया? दरअसल इसके लिए हमें इसके अतीत में झांकना होगा.
1983 में जब भारत ने पहली बार वर्ल्ड कप जीता तो क्रिकेट को खेल के तौर पर बहुत प्रसिद्धि मिली. टीवी पर कई कैमरों से उसके कवरेज ने इस खेल में जान डाल दी. उसे बाद हिन्दी में उसकी कमेंटरी ने उसे जन-जन तक पहुंचाया. फिर आया कॉर्पोरेट का जमाना जिसमें हर चीज बेची जाने लगी. क्रिकेट को एक कमोडिटी की तरह बेचा जाने लगा. बड़ी-बड़ी कंपनियों ने इसे प्रचार का जबर्दस्त माध्यम मान लिया और बीसीसीआई की तिजोरी भरती गई. उसके लालच की सीमा नहीं रही. एक के बाद एक सीरीज होने लगीं. फिर आया आईपीएल का जमाना. शुरू में यह कार्निवाल क्रिकेट लोगों को खूब भाया. लेकिन फिर इतना क्रिकेट हुआ कि लोगों को समझ में नहीं आने लगा कि कब और कहां किससे मैच हो रहे हैं.
भारतीय क्रिकेट टीम पैसा कमाने की एक मशीन हो गई. बीसीसीआई के लालच की सीमा नहीं रही और अब उसका परिणाम सामने है. लोगों की उस खेल के प्रति दिलचस्पी घटती गई. अब हालात बद से बदतर हो गए हैं. लेकिन यह अच्छा हुआ. जैसे बरगद के पेड़ के नीचे दूसरे पेड़ नहीं उगते, ठीक वैसे ही क्रिकेट के कारण दूसरे खेलों का विकास थमने लगा था. लोग उनके बारे में चर्चा भी नहीं करना चाहते थे. लेकिन अब परिस्थितियों ने करवट ली है. लोग दूसरे खेलों की ओर मुखातिब हुए हैं. यह एक शुभ चिन्ह है क्योंकि देश ‘पागलपन’ के एक दौर से निकलता दिख रहा है.
‘तिलस्म की एक फितरत होती है कि वह ताउम्र नहीं होता.’