23 वर्षों के बाद जब दो प्रतिद्वंद्वी गले मिले तो बड़ी घटना होनी चाहिए थी और मजमा इकट्ठा होना चाहिए था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. दो बडे़ लेकिन पस्त नेताओं के सुर मिलने के बाद भी जनता ने उनकी सुध नहीं ली. जेडी(यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार और आरजेडी के बॉस लालू यादव का आपस में मिलना मीडिया इवेंट के अलावा कोई संदेश नहीं दे पाया. उनका यह बहुप्रचारित शो फ्लॉप रहा.
दरअसल जो लोग दीवारों पर लिखी इबारत नहीं पढ़ पाते हैं, उनके साथ ऐसा ही होता है. नीतीश बाबू सुशासन पुरुष के रूप में माने गए थे जिन्होंने डंके की चोट पर बिहार के कुशासन को खत्म करने का आह्वान किया था और सफल भी हुए थे. राजनीति में यह उनकी सबसे बड़ी पूंजी थी जिसे उन्होंने हाजीपुर के सुभई जमालपुर गांव में गंवा दिया. यह देखते हुए कि उनकी पार्टी सत्ता में है, इस शो में मात्र कुछ 'सौ' लोगों का आना उनके लिए एक भयानक दुःस्वप्न की तरह रहा होगा. उन्हें उम्मीद रही होगी कि इस सभा में खूब भीड़ होगी और लोग उनके पूर्व सखा लालू यादव के साथ देखने को उमड़ पड़ेंगे. लेकिन यह सपना ही रह गया.
भारतीय राजनीति के क्षत्रपों की यह खास बात रही है कि वे अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं के आधार पर ही राजनीति करते हैं. उनके लिए किसी और की राय या लोकतांत्रिक विचार कोई मायने नहीं रखते. उनके पास समर्थकों की एक फौज होती है जिस पर वे राज करते हैं और अपनी इच्छाओं का लादते रहते हैं.
जाहिर है, नीतीश कुमार कोई अपवाद नहीं हैं. वे यह मानकर चलते हैं कि वे जो भी करेंगे उनके समर्थकों को मान्य होगा लेकिन इस बार वह मात खा गए. जेडी(यू) के कार्यकर्ताओं ने लालू प्रसाद की पार्टी को परास्त करने के लिए पूरी मेहनत की, दिन-रात एक किया और सबसे बड़ी बात यह रही कि उन्होंने अपने-अपने इलाकों में अपनी पार्टी की साख जमाई. लेकिन अब नीतीश कुमार चाहते हैं कि वे अपने किए-कराए पर पानी फेर दें क्योंकि उन्हें नरेन्द्र मोदी पसंद नहीं हैं. उनकी यह घोर नापसंदगी पार्टी को रसातल में ले जा रही है. उनके कार्यकर्ता उनके इस तुगलकी फरमान को मानने को तैयार नहीं हैं और इसका उदाहरण सोमवार को उन्हें मिल गया.
हालांकि उन्होंने सभास्थल में हमेशा की तरह बीजेपी के खिलाफ जहर उगला लेकिन उन्हें वह रिस्पॉन्स नहीं मिला जिसकी उन्हें उम्मीद थी. उनकी और उनके नए मित्र की, जो उन्हें छोटा भाई बता रहे हैं, बातों से लगा कि इस तथाकथित महागठबंधन का मकसद सिर्फ और सिर्फ बीजेपी को धूल चटाना है. नीतीश कुमार बिहार की गद्दी इसलिए मिली थी कि उन्होंने नरकीय जीवन जी रहे करोड़ों बिहारियों में आशा की एक किरण जगाई थी और बाद में उन्हें एक बेहतर जिंदगी भी दिलाई. लेकिन अब वह उन्हीं ताकतों से समझौता कर रहे हैं कि जो उस राज्य की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं. यह बात किसी के गले नहीं उतर पा रही है. लालू यादव खुश हैं. उन्हें फिर से बिहार की गद्दी दिख रही है. उनके रास्ते का कांटा दूर हो चुका है और उन्हे लग रहा है कि आनेवाले दिनों में फिर से वह अपनी धाक जमा सकेंगे. लेकिन सोमवार की रैली और शक्ति प्रदर्शन के बाद उन्हें अपनी हालत का अंदाजा लग गया होगा.
नीतीश बाबू के लिए तो यह बड़ा झटका रहा होगा. बहरहाल अब इंतजार कीजिए उपचुनाव के परिणामों का और फिर अंदाजा लगेगा कि कौन कितने पानी में है.