शरद पवार राजनीति के जबर्दस्त खिलाड़ी हैं. वह कोई सिद्धांतों की राजनीति नहीं करते. वक्त और सामने वाले की हैसियत के मुताबिक उनका हर कदम बढ़ता है. सत्ता के तमाम खेल उन्हें आते हैं और उन्हें पता है कि कब मोल-तोल करनी है और कब दरवाजे खुले रखने हैं. जिन सोनिया गांधी को उन्होंने विदेशी और न जाने क्या-क्या कहा, उनकी पार्टी के साथ उन्होंने सरकार बनाई. उस गठबंधन सरकार में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. देश के हित और अहित वाले सभी फैसलों में वे साथ रहे लेकिन ऐन वक्त पर उन्होंने हवा का रुख ताड़ते हुए कांग्रेस को अंगूठा दिखा दिया.
उन्हें मालूम था कि महाराष्ट्र में जनता उनसे, यूपीए से नाराज है और वे उसे वोट कम देंगे. इसलिए उन्होंने तमाम गलतियों के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए उससे किनारा कर लिया. उनका अंदाजा और चाल दोनों ही सही थे. राज्य में कांग्रेस सिकुड़कर तीसरे नंबर की पार्टी हो गई. यह सभी जानते हैं कि महाराष्ट्र में जितने बड़े घोटाले हुए उनमें ज्यादातर में उनकी पार्टी के लोग शामिल रहे. देश में प्याज और चीनी की कीमतें अंधाधुंध बढ़ने के पीछे कौन था, यह सभी को पता है लेकिन शरद पवार की राजनीति कुछ ऐसी थी कि सारा का सारा दोष बहुत सफाई से वह कांग्रेस पर मढ़ गए.
अब बीजेपी के बहुमत के करीब पहुंचते ही उन्होंने नई चाल चल दी. अमूमन ऐसे वक्त पर राजनीतिक दल और नेता तोलमोल करने लग जाते हैं लेकिन शरद पवार ने तुरंत बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा करके सभी को आश्चर्य में डाल दिया. दरअसल सरप्राइज़ फैक्टर उनकी राजनीति का बड़ा हिस्सा है. यह उनके प्रतिद्विंद्वियों को उन पर हावी नहीं होने देता है. जब तक वे कुछ समझ पाते हैं, शरद पवार अपना काम कर जाते हैं. इस बार भी ऐसा ही हुआ. उनके इस बयान से सबसे ज्यादा चोट पहुंची शिवसेना को जो फिर से गठबंधन करने के लिए अपनी शर्तें रखना चाहती थी.
शरद पवार के बयान ने शिवसेना को कमज़ोर कर दिया और बीजेपी की राह आसान कर दी. लेकिन एनसीपी सुप्रीमो के इस निर्णय के पीछे क्या मकसद है, यह समझना कठिन है. शायद वह चाहते हैं कि नई सरकार उन घोटालों की जांच में जल्दबाजी न करे या ऐसा कुछ न करे जिससे उन्हें व्यक्तिगत रूप से परेशानी हो. वह वक्त खरीदना चाहते हैं और साथ ही कटुता को कम रखना चाहते हैं. वह नहीं चाहते कि विपक्ष में रहते हुए उन्हें किसी तरह की तकलीफ हो.
बहरहाल अभी उनके इस कदम की सही व्याख्या करना संभव नहीं होगा लेकिन इतना तय है कि वह नई सरकार से किसी तरह की शत्रुता मोल नहीं लेना चाहते. कई दशकों तक सत्ता का स्वाद चखने के बाद वह उसका जायका नहीं बिगड़ने देना चाहते. अब आप इसे अवसरवाद की राजनीति कहें या कुछ और.