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Opinion: बीजेपी के एक अध्याय का अंत

भारतीय जनता पार्टी के जीवन के एक महत्वपूर्ण अध्याय का अंत हो गया है. पार्टी को हिन्दूत्व के नारे से ऊर्जावान बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी और उनके सहयोगी मुरली मनोहर जोशी अब संसदीय समिति में नहीं हैं.

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आडवाणी और जोशी का बीजेपी की संसदीय समिति में नाम नहीं
आडवाणी और जोशी का बीजेपी की संसदीय समिति में नाम नहीं

भारतीय जनता पार्टी के जीवन के एक महत्वपूर्ण अध्याय का अंत हो गया है. पार्टी को हिन्दूत्व के नारे से ऊर्जावान बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी और उनके सहयोगी मुरली मनोहर जोशी अब संसदीय समिति में नहीं हैं.

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दोनों ही नेता 1980 के बाद से पार्टी में महत्वपूर्ण पदों पर रहे और उनकी बात सुनी जाती रही. आडवाणी ने पार्टी को सत्ता में लाने के लिए कई रणनीतियां बनाईं और 1998 में अगर पार्टी सत्ता में आई तो उसका श्रेय आडवाणी को भी गया. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में तो वह पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता थे. अपनी रथयात्रा और शिला यात्रा से उन्होंने पार्टी को गांव-गांव पहुंचा दिया.

जोशी ने पार्टी को वैचारिक स्तर पर मजबूत किया. दोनों ने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर भारतीय जनता पार्टी को भारतीय राजनीति में स्थापित किया. वाजपेयी अब बीमार रहते हैं और वह सक्रिय भी नहीं है. इसके साथ ही देश की राजनीति में इस शक्तिशाली तिकड़ी के पार्टी में कार्यकलापों पर पर्दा गिर गया है. नरेन्द्र मोदी के नाम पर पार्टी की लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व सफलता के बाद यह लगभग तय हो गया था कि पार्टी के बुजुर्ग नेताओं के लिए आने वाला समय भारी पड़ेगा.

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यह सभी जानते हैं कि आडवाणी ने मोदी को आगे बढ़ाया लेकिन जब उन्हें लगा कि वह कुछ ज्यादा ही आगे निकल रहे हैं तो उन्होंने नकारात्मक नीति अपनाई. मोदी को रोकने, उनके रास्ते में अवरोध डालने और इन सबसे बढ़कर उनका खुला विरोध करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोडी़.

मुरली मनोहर जोशी ने भी वाराणसी सीट छोड़ने में काफी ना-नुकुर की. वे तो मोदी के लिए प्रचार करने तक नहीं गए. दरअसल ये दोनों बड़े नेता दीवार पर लिखी इबारतों को पढ़ने में नाकामयाब रहे. बढ़ती उम्र ने उनकी आंखों के सामने पर्दा डाल दिया था और वे मोदी की खिलाफत ही करते रह गए. यह उनके पक्ष में नहीं गया और जाहिर है कि मोदी के विरोध की नीति उनके लिए महंगी साबित हुई.

पार्टी को बुजुर्गों से छुटाकारा दिलाने और युवाओं को लाने की नीति के तहत मोदी ने नए नेताओं को मौका दिया. पार्टी की इस शीर्ष समिति में उन्होंने नए लोगों को आजमाया है और सब कुछ अपनी सोच के अनुसार किया है. नई संसदीय समिति पूरी तरह से मोदी की पसंद के नेताओं से बनी है और जाहिर है कि उनके दिशा निर्देश पर चलेगी. मोदी नहीं चाहते कि अब 'घर' में उनका कोई विरोध हो या वे अपने इच्छानुसार फैसले नहीं कर पाएं.

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अब मोदी ने पार्टी में पूरी तरह से अपनी पकड़ बना ली है. देखना है कि वह उसे किस दिशा में ले जाते हैं. पार्टी में उनकी बात पर मुहर लगा करेगी और फैसले भी उनकी मर्जी के मुताबिक होंगे. पुराने और बुजर्ग नेताओं के लिए पार्टी में मार्ग दर्शक समिति बना दी गई है. आडवाणी और जोशी सरीखे नेता वहां बैठकर पार्टी की गतिविधियां और उसकी दिशा देख सकेंगे लेकिन कुछ कर नहीं पाएंगे. इसे ही कहते हैं समय का फेर.

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