देश की राजधानी में अब शोर थम गया है, अब निगाहें नेताओं पर नहीं, वोटरों पर हैं. उनके पास है लोकतंत्र का सबसे बड़ा हथियार, उनका वोट. यह वोट ही दिल्ली के राजसिंहासन की दावेदारी पक्की करेगा.
दोनों ही बड़े दलों ने जमकर प्रचार किया और अपनी पूरी ताकत झोंक दी. लेकिन कमाल तो किया अरविंद केजरीवाल की बनाई नई पार्टी आप ने. इसमें कोई राजनीतिज्ञ या राजनीति का खिलाड़ी नहीं था, लेकिन इसने जनभावना को सही ढंग से पकड़ा, सत्ता के खिलाफ आक्रोश को समझा और सबसे बढ़कर दिल्ली में रहने वालों की रोजमर्रा की तकलीफ को जाना. लोग उससे जुड़ते गए और एक गैर राजनीतिक पार्टी तैयार हो गई. आज यह पार्टी दिल्ली में दोनों बड़े दलों को चुनौती देती दिख रही है. यह लोकतंत्र की बहुत बड़ी सफलता है. यह लोकतंत्र की विविधता है कि कोई भी यहां उसके तरीके से राजसत्ता को चुनौती दे सकता है और अपनी ताकत दिखा सकता है.
दिल्ली के चुनाव पर सारी दुनिया की निगाहें टिकी हुई हैं. लोग देखना चाहते हैं कि इसके परिणाम क्या होंगे, क्योंकि उन्हें लगता है कि उससे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कुछ संकेत मिलेंगे. महंगाई, भ्रष्टाचार और जड़ता से मुक्ति पाने के लिए जनता इस लोकतांत्रिक तरीके का कितना उपयोग कर पाती है. लेकिन दिल्ली ही क्यों, मध्य प्रदेश या राजस्थान क्यों नहीं? यह सवाल वाजिब है, लेकिन इसका जवाब साफ है कि दिल्ली में भारत के हर प्रांत के लोग बसते हैं. सैकड़ों जातियों और सभी धर्मों के लोग यहां रहते हैं. यह एक मिनी इंडिया है, इसलिए ही इस पर सभी की निगाहें हैं. यहां होने वाली वोटिंग एक इशारा करेगी कि हवा किस ओर बह रही है और लोग सत्तारूढ़ दल से कितने जुड़े हुए हैं या उनका मोह भंग हो चुका है. वे बदलाव चाहते हैं या वैसा ही सब कुछ चलने देना चाहते हैं.
अब तर्क-कुतर्क का वक्त नहीं है, फैसले लेने का वक्त है. सो लोग मशीनों के बटन दबाने को तैयार हैं. परिणाम बताएंगे कि वक्त की चाहत क्या है, लेकिन यकीन मानिए उसका असर दूर तक होगा.