प्रियंका गांधी के बारे में अक्सर कई तरह की खबरें आती रहती हैं. लेकिन इस खबर ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा कि वह वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहती थीं लेकिन आला कमान से इजाजत नहीं मिली. वह चाहती थीं कि बीजेपी के पीएम कैंडिडेट नरेन्द्र मोदी से सीधे दो-दो हाथ करें. और अगर ऐसा होता तो वाकई इस पूरे लोक सभा चुनाव परिदृश्य का सबसे दिलचस्प नजारा होता.
लेकिन अब वह सिर्फ अपने भाई राहुल गांधी और मां सोनिया गांधी के चुनाव प्रचार में हिस्सा ले रही हैं. यानी इस चुनाव में उनका रोल बहुत सीमित है और वह सिर्फ अपनों के ही हाथ मजबूत करेंगी.
यह वाकई हैरानी की बात है कि प्रियंका गांधी की इतनी लोकप्रियता होने के बावजूद उन्हें कभी भी राजनीतिक तौर पर वह पोजीशन नहीं मिली जिसकी वह हकदार हैं. वह अपने भाई और मां के निर्वाचन क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं और उन्होंने वहां घूम-घूम कर काफी प्रचार भी किया है. उन्हें वहां की जनता की नब्ज भी मालूम है. ऐसे में उनके खड़े होने से पार्टी के हताश कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हो जाते.
प्रियंका में युवा जोश तो दिखता है, राजनीति की समझ भी दिखती है. ऐसे में उन्हें चुनाव से दूर रखने का फैसला क्यों हुआ, यह बात समझ से परे हैं. शायद आलाकमान को लगता होगा कि इससे राबर्ट वाड्रा का मामला और सार्वजनिक हो जाएगा और इसे लेकर गांधी परिवार पर जबर्दस्त हमले होंगे. या फिर प्रियंका पर बहुत कीचड़ उछाली जाएगी.
वाड्रा की संपत्ति और उनके कई मामलों में संलिप्त होने की बात काफी समय से उछल रही है. कांग्रेस आलाकमान इससे बचना चाहता है और नहीं चाहता कि यह चुनाव में बहुत बड़ा मुद्दा बने. शायद ऐसा ही सोचकर पार्टी ने उन्हें दूर रखने का फैसला किया होगा. अभी ही पार्टी कई तरह के विवादों से जूझ रही है और रक्षा की नीति अपनाए हुए है, ऐसे में प्रियंका पर व्यक्तिगत हमला उस पर भारी पड़ सकता था.
बहरहाल जो भी हो, प्रियंका गांधी को चुनावी राजनीति से अलग रखकर पार्टी को कोई फायदा नहीं होगा. उनके सक्रिय होने का निश्चित रूप से फायदा उसे मिलता. उनके पास एक स्वाभाविक आकर्षण है जो पुराने लोगों को उनकी दादी इंदिरा जी की याद दिलाती है. आज की राजनीति में कांग्रेस को ऐसी शख्सियत की जरूरत है. 1977 के बाद से अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ी चुनौती झेल रही पार्टी ने शायद सोच समझकर फैसला नहीं किया. उसने रक्षा की नीति अपनाए रखने में ही भलाई समझी