भारत में गरीब और अल्पसंख्यकों को अमीर लोगों के मुकाबले ज्यादा कड़ी सजा मिलती है. हाल में आए आंकड़े भी कुछ ऐसी ही कहानी बयां करते हैं.
93.5 प्रतिशत हैं धार्मिक अल्पसंख्यक और दलित
एक रिसर्च में पिछले 15 सालों में मौत की सजा पाए 373 लोगों के इंटरव्यू से मिले आंकड़ों का अवलोकन करने पर पता चला कि सजा पाए तीन चौथाई लोग पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों से थे. इनमें से 75 प्रतिशत लोग आर्थिक रूप से कमजोर तबके से थे. गरीब, दलित और पिछड़ी जातियों के लोग पैसों की कमी के चलते अपने केस की पैरवी के लिए अच्छा वकील नहीं कर पाते हैं जो उन्हें अदालत की कठोर सजाओं से बचा सके. आतंक से जुड़े मामलों के लिए सजा पाने वालों में भी 93.5 प्रतिशत लोग धार्मिक अल्पसंख्यक और दलित हैं.
मौत की सजा के पक्ष में नहीं हैं लॉ कमीशन के चेयरमैन
लॉ कमीशन की मदद से नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से एक स्टूडेंट्स ने यह स्टडी की है. लॉ कमीशन को अभी यह तय करना है कि मौत की सजा का प्रावधान बरकररार रखना है या नहीं. लॉ पैनल के चेयरमैन जस्टिस ए.पी. शाह मौत की सजा को हटाने जाने के पक्ष में हैं. वह अगले महीने तक सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंप देंगे.
शायद ही किसी ने अफजल गुरु की पैरवी की हो: प्रशांत भूषण
सीनियर वकील प्रशांत भूषण ने कहा, 'यह सच है कि वर्ग को लेकर थोड़ा भेदभाव है, हमारी जेलों में ऐसे कई लोग भरे पड़े हैं जो पैसों की कमी के चलते जमानत के लिए वकील नहीं कर सकते हैं.' उन्होंने कहा कि सिर्फ 1 फीसदी लोग ही अच्छे वकील ढूंढ पाते हैं. उन्होंने कहा कि ट्रायल कोर्ट में अफजल गुरु के लिए शायद ही किसी ने पैरवी की हो.
कैदियों को पता ही नहीं होता, कोर्ट में क्या चल रहा है
ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के फाउंडर और सीनियर ऐडवोकेट कॉलिन गॉन्जाल्वेज ने कहा, 'मुझे लगता है कि 75 प्रतिशत मौत की सजाएं गरीबों को हुई हैं. अमीर लोग आसानी से बच जाते हैं मगर गरीब, खासकर दलित और पिछड़े फंसे रह जाते हैं. नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों ने सभी मौत की सजा पाए कैदियों से बात की और उनकी कहानी जानी. फांसी पर चढ़ने से पहले वे किस तरह का मानसिक दबाव और परेशनी झेलते हैं इस बात की भी जानकारी ली गई. मौत की सजा पाने वाले कैदी अमूमन कोर्ट की कार्यवाही में उपस्थित नहीं होते. ज्यादातर कैदियों ने बताया कि कोर्ट में होने के बावजूद उन्हें समझ नहीं आया कि वहां क्या चल रहा था.
पैसों की कमी के चलते नहीं कर पाते वकील
एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स की चेयरमैन सुहास चकमा ने कहा, 'मौत की सजा उन लोगों के लिए है जो गरीब हैं, वे अरेस्ट किए जाने पर वकील की मदद नहीं ले पाते हैं जबकि अमीर लोग ऐसा कर लेते हैं. यही फर्क दोनों की जिंदगियों को बदल देता है.' उन्होंने कहा कि गरीबों और पिछड़ों को कानूनी मदद मुकदमा शुरू होने पर मिलती है, मगर तब तक देर हो चुकी होती है.
मानसिक समस्याओं से ग्रस्त हो जाते हैं कैदी
जेल में मौत की सजा पाने वाले कैदी अलग बैरक में रखे जाते हैं. उन्हें अन्य कैदियों की तरह काम करने या बाकियों से मिलने नहीं दिया जाता. इससे उन्हें कई तरह की मानसिक समस्याएं हो जाती हैं. बहुत से कैदियों ने यह कहा कि वे जीना नहीं चाहते और उन्हें तुरंत फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए. कुछ मानसिक रूप से मजबूत कैदियों ने बताया कि अगर उन्हें अच्छा वकील मिलता तो उन्हें शायद यह सजा नहीं मिलती.
42% अकेले यूपी और बिहार से हैं मौत की सजा पाए कैदी
2000 से लेकर 2015 तक ट्रायल कोर्ट से 1,617 लोगों को मौत की सजा मिली. इनमें 42% अकेले यूपी और बिहार से हैं. हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में इस तरह की सजा की दर ट्रायल कोर्ट्स के मुकाबले कम है. कन्विक्शन रेट ट्रायल कोर्ट के मुकाबले हाई कोर्ट में 17.5 फीसदी और सुप्रीम कोर्ट में 4.9 फीसदी कम है. कई साल की फांसी की सजाओं को आजीवन कारावास या बाइज्जत बरी में बदल दिया जाता है.