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करणी सेना के लिए पद्मावत तो बहाना है, असल में जातीय एकता जगाना है

हिंसक हो चुके विरोध के इस ड्रामे के पीछे एक ऐसे जातीय समूह में पहचान का संकट है जिसके अंदर अपने साथ हो रहे अन्याय की गहरी भावना बन गई है.

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पद्मावत के बहाने राजपूतों को एकजुट करने की कोश‍िश
पद्मावत के बहाने राजपूतों को एकजुट करने की कोश‍िश

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संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत पर काफी कुछ लिखा जा चुका है. यह फिल्म मध्य युग के कवि मलिक मुहम्मद जायसी की अवधी भाषा के महाकाव्य पद्मावत पर आधारित है. निर्माताओं का दावा है कि फिल्म 'पूरी तरह से काल्पनिक कथा' पर बनी है. लेकिन करणी सेना लगातार यह कह रही है कि इस फिल्म में इतिहास से छेड़छाड़ की गई है. तमाम लोग बिना फिल्म देखे ही इसका विरोध करने में लगे हैं.

असल में सिनेमा से बाहर हीरो और विलेन तलाशने की जगह इस मसले की जड़ को समझना होगा, वह है-जातीय गुस्सा. हिंसक हो चुके विरोध के इस ड्रामे के पीछे एक ऐसे जातीय समूह में पहचान का संकट है जिसके अंदर अपने साथ हो रहे अन्याय की गहरी भावना बन गई है. शहरी संभ्रांत वर्ग जितना ही आधे-अधूरे इतिहास पर आधारित चरित्र पद्मिनी पर उनका दावा खारिज कर रहा है, उतना ही लोककथा की इस नायिका पर उनका दावा और बढ़ता जा रहा है.

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यही नहीं, इसके साथ ही मौजूदा समय में बढ़ी मुस्लिम विरोधी घृणा इसमें और आग फूंक रही है. अवसरवादी हिंदुत्व संगठन इस हंगामे में शामिल हो गए हैं, क्योंकि इससे उन्हें मुसलमानों पर चोट करने का एक और मौका मिल गया है. यहां तक कि यह पता चलने पर भी कि यह फिल्म तो राजपूतों का बखान ही करती है, करणी सेना पीछे हटने को तैयार नहीं है. इसकी वजह यह है कि वास्तव में उनको कभी भी फिल्म से मतलब ही नहीं था. वे अपने समुदाय की पहचान के संकट और उसके अंदर बनी अन्याय की भावना को भुनाने के लिए काम कर रहे हैं. इसके पीछे असल में बस ध्यान हासिल करने की ही कोशिश है.

करणी माता राठौर राजपूतों की 'कुल देवी' हैं. राजपूतों में इस तरह के 36 कुल हैं, जिनकी अलग-अलग कुलदेवियां हैं. तो यह अचरज की बात है कि आखिर राजपूत एक ऐसे संगठन के साथ क्यों खड़े हो रहे हैं, जिसका नाम सिर्फ एक कुलदेवी के नाम पर है? आखिर किस तरह से बिहार के राजपूत, जिन्होंने पद्मावत विवाद के पहले करणी सेना का नाम ही नहीं सुना था, बाहर निकलकर किसी मल्टीप्लेक्स में तोड़फोड़ कर रहे हैं?

पुरानी पहचान कायम करने की भूख

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उपरोक्त सवालों का जवाब है-पहचान की राजनीति. यह उनके लिए अपनी पहचान को जाहिर करने, अपने को एक अलग जातीय समूह के रूप में पेश करने का मौका है. पद्मावत ने उन्हें अपना गुस्सा बाहर निकलने का मौका दे दिया है, जो काफी समय से दबा हुआ था. इसके पहले तमाम जातीय समूह ऐसा करते रहे हैं. राजस्थान में आरक्षण हासिल करने के लिए पूर्व कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में गुर्जर ऐसा कर चुके हैं. उन्होंने तो तीन तरफ से दिल्ली का घेराव कर लिया था और सकरार को झुकने को मजबूर कर दिया था. हरियाणा का प्रभावी जाति समूह जाट अक्सर आंदोलनरत रहता है. वे भी नौकरियों में आरक्षण की मांग करते रहे हैं. जब उन्होंने आंदोलन तेज किया तो राज्य सरकार सख्ती पर उतर आई. इसका नतीजा अच्छा नहीं रहा, बड़े पैमाने पर हिंसा हुई. आरक्षण का सवाल अभी भी अधर में है. गुजरात के पटेलों के लिए भी पिछला साल काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा. उन्होंने सड़क जाम किए, बाजार बंद किए, पुलिस फायरिंग में युवाओं की जान गई. उन्होंने बीजेपी का विरोध कर अपना बदला लिया. महाराष्ट्र में मराठाओं में इसी तरह का गौरव आंदोलन जैसा चलता रहा है.

तो राजपूतों को पद्मावती के नाम पर यह मौका मिल गया. उनको टीवी के प्राइम टाइम में जगह मिल रही है. सही तरीके से बात न रख पाने वाले उनके प्रतिनिधि टीवी पर अपमानित हो रहे हैं और टीवी एंकर विजेता भाव से उनकी पिटाई कर रहे हैं. लेकिन सच यह है कि इससे राजपूतों का आंदोलन बढ़ ही रहा है और उनके अंदर यह भावना कायम हो रही है कि नए भारत में उनके लिए जगह नहीं है. टीवी एंकर उन्हें कायर कह रहे हैं, फिर भी वे खुशी से टीवी पर आ रहे हैं. असल में वे कोई राजपूत 'नेता' नहीं हैं, वे ऐसे लोग हैं जिन्हें नेता बनने का अवसर मिल गया है. पद्मावत ने उन्हें यह सौभाग्य दिया है.

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लोकेंद्र सिंह कल्वी एक सफल कांग्रेस नेता के असफल राजनीतिज्ञ बेटे हैं. आज हर कोई लोकेंद्र को जान गया है. इसी तरह की कहानी सूरज पाल अमु और अभिषेक सोम जैसे छोटे नेताओं की भी है. यदि भंसाली के सिर पर इनाम की घोषणा करने से टीवी फुटेज मिलता है तो वे पूरी अतिरेक के साथ ऐसा करना पसंद करते हैं. पद्मावत बस एक बहाना है. राजपूत होने और सवर्ण होने की वजह से वे सरकारी नौकरियों में आरक्षण भी नहीं मांग सकते. वे आर्थ‍िक रूप से पिछड़े हों तो भी वे किसी सरकारी मदद के हकदार नहीं हो सकते.

सच तो यह है कि कुछ राजाओं के वंशजों के अलावा बाकी सभी राजपूत आम आदमी की तरह ही रहते हैं. वे राजपूत इसलिए कहलाते हैं कि उन्होंने राजाओं के लिए लड़ाइयां लड़ी हैं और अक्सर लड़ाई में मारे गए हैं. अब भी तमाम राजपूत सेना में जाना पसंद करते हैं. बात यह भी है कि जब आपको सुविधाओं की आदत पड़ गई हो तो कोई समानता की बात आपको दमन जैसी लगती है. लोकतंत्र जब गहरी जड़ें जमा रहा है, तो शाही तमगा मलिन पड़ रहा है. ऐसे बहुत से लोग अपने जातीय अहं की वजह से कई तरह की नौकरियां नहीं कर पाते. उन्हें मुकाबले में सबसे बराबरी करनी पड़ती है. काम करना पड़ता है.

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लेकिन अब तो नौकरियां भी दुर्लभ हैं, जैसे कि स्किल दुर्लभ है. पटेलों, जाटों और गुर्जरों की तरह ज्यादातर राजपूत युवाओं का भविष्य भी धुंधला है. सरकार जब तमाम फायदों को जाति के आधार पर बांट रही है, राजपूतों का हिस्सा दिनोंदिन कम होता जा रहा है. उनका यह विश्वास बढ़ता जा रहा है कि वे अब जाति व्यवस्था के अन्याय के शिकार हो रहे हैं. हालांकि वे यह भूल जाते हैं कि, इसी जाति व्यवस्था की वजह से उन्हें तमाम सुविधाएं, फायदे मिलते रहे हैं.

बहुत से राजपूत प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उनको यह लगता है कि मुकाबला बराबर का नहीं है. नए भारत में शहरी लोगों को ज्यादा सहूलियतें हासिल हैं. अंग्रेजी भाषा में कुशलता की वजह से शहर में रहने वाले लोगों के लिए ज्यादा अवसर हैं. राजपूत खेती-किसानी से जुड़े रहे जो बंटता जा रहा है, इसकी वजह से उन्हें अब यह दिख रहा है कि बाकी मेहनती वर्ग उनसे आगे निकल रहा है.

तो राजपूतों का वर्तमान भी अच्छा नहीं है और भविष्य तो धुंधला है ही, ऐसे में उनके पास सिर्फ अतीत का गौरव ही बचा है. अमीर राजाओं की कहानियां, वीरता और अच्छे दिनों की गौरवशाली बातें उनके सिस्टम में हैं. इस अतीत से कुछ अलग होता है तो उन्हें गुस्सा आता है. करणी सेना भी बस यही कर रही है. उसने यह पेश किया कि भंसाली की फिल्म राजपूतों के अतीत, उनकी पवित्र चीजों पर हमला कर रही है.

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समस्या बड़ी है

देश में बहुप्रचारित डेमोग्रैफिक डिविडेंड यानी जनसंख्या का फायदा अब जनसंख्या के बोझ में बदलता जा रहा है. युवाओं की जनसंख्या का विस्फोट हो रहा है और उनके लिए नौकरियां नहीं हैं. वे गुस्से में हैं और यह गुस्सा कई तरह से निकल रहा है. राजपूतों के लिए पद्मावत के रूप में एक सुविधाजनक रास्ता मिल गया है. हम सभी भारतीयों को इस बात से ज्यादा चिंतित होना चाहिए कि ऐसी असुविधाजनक समस्याओं से निपटने के लिए सरकार अपने ही तरीके अपना रही है-'जो हो रहा है, होने दें.'

पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने कथित रूप से एक बार कहा था-कोई निर्णय न लेना अपने आप में एक निर्णय है. उनके इस रवैए के चलते बाबरी मस्जिद ढहा दिया गया. हम इस तरह का रवैया कई राज्यों में देख चुके हैं. प्रशासन इस उम्मीद में प्रदर्शनकारियों को अपने मन की करने देता है कि आखिरकार वे शांत हो जाएंगे. इसका नतीजा बहुत दुखद होता है. गुजरात दंगे इसी वजह से हुए क्योंकि गोधरा ट्रेन हमले से गुस्साए लोगों को उनके मन की करने दिया गया. हरियाणा में 30 से ज्यादा युवा मारे गए क्योंकि खट्टर सरकार ने जाट युवकों को हफ्तों तक उनके मन की करने दिया. हाल का इतिहास तो यही बताता है कि सरकार किसी समस्या को शुरू में ही हल करने की कोशिश नहीं करती, बल्कि इसके विपरीत उसे तब बढ़ने देती है, जब तक घाव पूरी तरह से सड़ न जाए.

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