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पराली से परेशान दिल्ली-एनसीआर, इलाज मौजूद लेकिन सुस्त है सरकार!

पराली की ये समस्या साल दर साल गंभीर होती जा रही है और सरकारी चेतावनियां और जुर्माने के प्रावधान जैसी कोशिशें इसपर अंकुश लगाने में नाकाम रही हैं.

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साल दर साल गंभीर होती जा रही है पराली की समस्या (तस्वीर: ANI)
साल दर साल गंभीर होती जा रही है पराली की समस्या (तस्वीर: ANI)

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राजधानी दिल्ली और उसके आसपास का इलाका फिर से जहरीले धुएं के बादल से घिरता चला जा रहा है. हवा में मिलते इस जहर के लिए पंजाब और हरियाणा में किसानों द्वारा बड़े पैमाने पर जलाई जा रही पराली को जिम्मेदार बताया जा रहा है. पराली की ये समस्या साल दर साल गंभीर होती जा रही है और सरकारी चेतावनियां और जुर्माने के प्रावधान जैसी कोशिशें इसपर अंकुश लगाने में नाकाम रही हैं. aajtak.in ने इस मुद्दे पर जाने माने पर्यावरणविद् डॉ. सुभाष सी. पांडे से बातचीत की और जानने की कोशिश की कि इस समस्या के क्या समाधान हो सकते हैं.

डॉ. सुभाष सी. पांडे पराली के वैज्ञानिक समाधान पर काफी समय से काम कर रहे हैं. वे एनजीटी में पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर 50 से ज्यादा याचिकाएं लगा चुके हैं और फिलहाल हरियाणा पॉन्ड अथॉरिटी के उपाध्यक्ष हैं.

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पराली की समस्या क्यों बनी हुई है?

रबी और खरीफ की फसल काटने में दिल्ली के आसपास हरियाणा और पंजाब के हार्वेस्टर उपयोग में आते हैं. ये हार्वेस्टर इस तरह से बने हैं कि फसल को घुटनों तक की ऊंचाई तक काटते हैं. जिसकी वजह से फसल के अवशेष (पराली) को किसान जलाकर खेतों को साफ करते हैं. यदि हार्वेस्टर में स्ट्रा रीपर लगा दिए जाएं तो फसल बिल्कुल नीचे से कटेगी और पराली बचेगी ही नहीं, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा.

ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा?

15-20 साल पहले जब फसलें हाथ से कटती थीं तब पराली की समस्या ही नहीं होती थी क्योंकि तब जड़ से फसल कटती थी लेकिन अब हार्वेस्टर की गलत तकनीक की वजह से समस्या पैदा हो रही है. मैंने इसी समस्या से निपटने के लिए मध्य प्रदेश में एनजीटी में याचिका लगाई थी और वहां से सभी कलेक्टरों को यह आदेश दिए गए थे कि किसी जिले में बिना स्ट्रा रीपर वाला हार्वेस्टर घुसने न दिया जाए.

पराली का धुआं कितना खतरनाक है?

जब भी पराली जलाई जाती है तो बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड पैदा होती है. ये ग्रीन हाउस गैस का एक भाग है. जब ये गैस, फॉग से मिलती है तो एक काले धुएं की शक्ल ले लेती है जिसे स्मॉग कहते हैं. ये जमीन के पास ही फैला होता है. इस वजह से संपर्क में आने वाले व्यक्त‍ि की आंखें और स्क‍िन प्रभावित होती है. वहीं, हृदय और श्वांस संबंधी समस्याएं भी पैदा हो जाती हैं. ब्रोंकाइटिस के मरीज के लिए ये जानलेवा है. बच्चों और बुजुर्गों को इससे सबसे ज्यादा खतरा पैदा हो जाता है.

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इससे कैसे बचा जा सकता?

इसके लिए जगह-जगह एयर मॉनिटर लगाए जाने चाहिए खासकर पंजाब और हरियाणा में. इसकी निगरानी की व्यवस्था सही तरीके से की जानी चाहिए. जैसे ही कहीं पराली जलने की घटना की वजह से एयर मॉनिटर में संकेत आएं, शासन-प्रशासन को तत्काल एक्शन लेकर कार्रवाई करनी चाहिए.

और क्या वैकल्प‍िक चीजें हैं जिनसे पराली की समस्या से छुटकारा मिल सके?

गाजियाबाद में एक नेशनल सेंटर फॉर ऑर्गेनिक फॉर्म‍िंग है. उसने ऐसा केमिकल बनाया है जो पराली पर छिड़कने के बाद एक महीने में उसे खाद में परिवर्तित कर देता है. इसे सरकार को फ्री में किसानों को बांटना चाहिए जिससे पर्यावरण प्रदूषण कम होगा और लोगों की जान जाने से बचेगी.

कैसे काम करता है वेस्ट डीकंपोजर

वेस्ट डीकंपोजर का पराली पर छिड़काव किया जाता है. ये केमिकल, गोबर और अन्य चीजों से मिलकर बना होता है. इसका 2 या 3 बार छिड़काव किया जाता है. एक महीने में ही इस वेस्ट डीकंपोजर से पराली की समस्या से छुटकारा मिल जाता है. ये बहुत महंगा नहीं है, सरकार चाहे तो इसे मुफ्त में भी बंटवा सकती है.

फिर ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा?

सरकारी चाल इन कामों में धीमी ही रहती है. यहां दिल्ली के लोगों की जान पर बन आई है और वहां वेस्ट डीकंपोजर के बारे में किसानों को जागरुक ही नहीं किया जा रहा. यदि उन्हें इस बारे में पता चल जाए तो वे पराली को जलाने की जगह उसे खाद बनाकर अपने खेतों में ही इस्तेमाल कर लेंगे.

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