पीएम मोदी 27-28 अप्रैल को चीन के दौरे पर जा रहे हैं. उनकी इस अचानक यात्रा को हाल के भारत-चीन रिश्ते के बीच का एक बड़ा घटनाक्रम माना जा सकता है. डोकलाम पर महीनों तक गतिरोध बने रहने और भारत द्वारा सख्ती दिखाने के बाद अब चीन को भी यह समझ में आ गया है कि यह 1962 का भारत नहीं है. इधर भारत ने चीन को कई अच्छे संकेत भी दिए हैं. तो अब पीएम मोदी की इस यात्रा से दोनों देशों के बीच एक व्यावहारिक रिश्ते की शुरुआत हो सकती है.
पीएम मोदी के लिए यह एक बड़ा दांव हो सकता है. चीन से 1962 में एक जंग हारने के बाद हम फिर पूरी ताकत से खड़े हो गए हैं. डोकलाम पर करीब 73 दिन तक बने गतिरोध में भारत ने इस बार सख्त रवैया दिखाया. पीएम मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच एक अनौपचारिक शिखर वार्ता होगी जिसमें सीमा विवाद निपटारे की दिशा में कदम आगे बढ़ सकता है. दोनों देशों के बीच सीमा विवाद पर अगर कुछ शांतिपूर्ण रवैया बना तो यह दक्षिण एशिया में दीर्घकालिक स्थिरता कायम कर सकता है.
भारत और चीन के बीच इस पिघलते बर्फ में दोनों देशों की समझदारी और व्यावहारिकता दिख रही है. इसके लिए खासकर पीएम मोदी के नेतृत्व में भारत ने चीन को अच्छे संकेत देने की कोशिश की.
मालदीव पर संयम
हाल में मालदीव में आपातकाल के दौरान भी भारत ने काफी संयम बरता और चीन से कहा है कि वह अपने पड़ोसी देश में हस्तक्षेप नहीं करेगा. भारत ने इस बात पर जोर दिया है कि इस कदम से दोनों देशों के बीच 'सामरिक विश्वास' को मजबूती मिलेगी.
तिब्बतियों के प्रति व्यवहार में बदलाव
पीएम मोदी की अचानक चीन यात्रा की भूमिका में दलाई लामा और भारत में प्रवासियों तिब्बतियों के साथ सरकार के बदले रवैए को भी देखा जा रहा है. दिल्ली में दलाई लामा के कार्यक्रम को अचानक रद्द कर दिया गया. इसके बाद एक विभागीय लेटर लीक हुआ जिससे यह पता चला कि सरकार ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों को निर्वासित तिब्बती सरकार के कार्यक्रमों से दूरी बनाने को कहा.
तिब्बतियों का 'धन्यवाद भारत' कार्यक्रम चुपचाप धर्मशाला स्थानांतरित कर दिया गया. हालांकि इसमें बीजेपी के वरिष्ठ नेता राम माधव और केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा शामिल हुए, लेकिन इस कार्यक्रम को उतनी तवज्जो नहीं मिल पाई.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सरकार ने चीन को अपने इस कदम की जानकारी दी. यानी इसे एक गुडविल बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया कि भारत सरकार चीन की चिंताओं का ध्यान रखती है.
इसके बाद 23 फरवरी को विदेश सचिव विजय गोखले चीन की यात्रा पर गए थे. संभवत: इसी दौरान इस पर बातचीत हुई कि क्या दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्ष स्तर पर बातचीत हो सकती है. इसके बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जब चीन गईं तो वहां के विदेश मंत्री वांग यी ने एक ज्वाइंट प्रेस कॉन्फ्रेंस में पीएम मोदी की यात्रा की घोषणा की. चीन के विदेश मंत्री ने कहा, 'दोनों नेता शताब्दियों में होने वाले बदलावों से जुड़े सामरिक मसलों पर बात कर सकते हैं. दोनों भारत-चीन रिश्तों के भविष्य पर बात कर सकते हैं.'
डोकलाम से चीन को मिला सबक
यह सच है कि चीन सैन्य और आर्थिक रूप से भारत से काफी आगे है. लेकिन डोकलाम में भारत ने इस बार चीन के सामने सख्ती दिखाई. भारतीय सेना सामरिक रूप से काफी अग्रिम मोर्चे पर थी और चीन की जनमुक्ति सेना (PLA) के किसी भी आक्रामकता का जवाब देने के लिए तैयार थी. 70 से ज्यादा दिन तक कोई भी टस से मस नहीं हुआ. इस बार चीन के लिए खेल 1962 के जैसा आसान नहीं था.
स्थिति 1962 से विपरीत इसलिए भी है क्योंकि चीनी कंपनियों के लिए भारत एक बड़ा बाजार है. तब के दौरे में दोनों देशों का वैश्विक व्यापार सीमित था. दोनों देशों के व्यापार में चीन का पलड़ा भारी रहता है, इसलिए वहां के कॉरपोरेट जगत का दबाव भी चीन पर रहता है. ऐसे में चीन भी शायद यह समझ चुका है कि अब एशिया की एक बड़ी ताकत बन चुके भारत से उलझने की जगह कारोबारी साझेदारी रखने में ज्यादा भलाई है. तो पीएम मोदी भी शायद चीन से अब नए तरह के रिश्ते गढ़ने की कोशिश करेंगे.