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क्या प्रकाश कारत दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल कर रहे हैं?

प्रस्ताव कहता है कि जिन पांच बिंदुओं पर फोकस करना जरूरी है उनमें से पहला, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर जनसंघर्ष को मज़बूत करने के लिए ‘वाम और लोकतांत्रिक दलों’ को साथ लाने की ज़रूरत है.

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फाइल फोटो (पीटीआई)
फाइल फोटो (पीटीआई)

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अपने निजी वर्चस्व की लड़ाई वामदलों की सबसे बड़ी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के लिए एक बड़ा संकट बनती जा रही है जिसमें एक ओर पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी हैं तो दूसरी ओर पूर्व महासचिव प्रकाश कारत हैं. पार्टी के अंदर दोनों धड़ों के बीच बढ़ते गतिरोध ऐसे समय में सामने आ रहे हैं जब देशभर में वाम राजनीति और खुद सीपीएम के पैर लगातार लड़खड़ा रहे हैं. भारत में वामपंथी राजनीति के लिए यह एक बड़े संकट और चिंता का विषय है.

पिछले दिनों कोलकाता में पार्टी की केंद्रीय समिति की एक अहम बैठक हुई. बैठक में सीताराम येचुरी की ओर से प्रस्ताव रखा गया जिसमें कहा गया है कि एक उचित रणनीति के तहत भाजपा विरोधी दलों को साथ लेकर भाजपा-संघ वाली सरकार को सत्ता से बाहर किए जाने का प्रयास होना चाहिए. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि इसका तात्पर्य किसी सामंतवादी पार्टी (कांग्रेस) के साथ मिलकर या गठबंधन बनाकर चुनाव में उतरना नहीं है.

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प्रस्ताव कहता है कि जिन पांच बिंदुओं पर फोकस करना जरूरी है उनमें से पहला, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों पर जनसंघर्ष को मज़बूत करने के लिए ‘वाम और लोकतांत्रिक दलों’ को साथ लाने की ज़रूरत है.

येचुरी दरअसल, कोई नई बात नहीं कह रहे हैं. सीपीएम की 17वीं पार्टी कांग्रेस के प्रस्ताव को ही सीताराम अपनाने की बात कह रहे हैं. ये प्रस्ताव कहता है, “कांग्रेस पार्टी के वर्ग चरित्र को देखते हुए इसकी गुंजाइश नहीं है कि उसके साथ सीपीएम किसी तरह का गठबंधन करे या संयुक्त मोर्चा बनाए.... लेकिन ताज़ा परिस्थितियों में कांग्रेस के विशाल जनाधार तक भी पहुंचने की ज़रूरत है क्योंकि सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष को मज़बूत करने के लिए उनतक पहुंचना भी आवश्यक है.”

भारत में वामदलों की स्थिति पिछले एक दशक में खासी कमज़ोर होती गई है. गिनती के सांसद और दो छोटे राज्यों में सत्ता के साथ उनका राष्ट्रीय दल बने रहने का मान भी धीरे-धीरे क्षीण पड़ता जा रहा है. और यह ऐसे समय में हो रहा है जब देश में एक विचारधारा और एक झंडे की राजनीति तेजी से पैर पसार रही है. विपक्ष, जिसमें कांग्रेस, वामदल और अन्य क्षेत्रीय दल शामिल हैं, इसे लोकतंत्र और संविधान के लिए बुरे संकेत के तौर पर देख रहे हैं.

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ऐसे विपरीत समय में ही वामदलों के लिए एक उर्वरक संभावना भी कइयों को दिखाई देती है. वाम की एक थ्योरी कहती भी है, "जब भेदभाव और शोषण बढ़ेगा तो समाज दो हिस्सों में खड़ा होता दिखाई देगा. इसमें एक शोषक होगा और दूसरा शोषित और बहुमत शोषितों का संघर्ष ही शोषक को उखाड़ने का काम करेगा." लेकिन यह देखने के लिए वामदलों को बने रहना होगा और आगे बढ़ना होगा. सत्ता और लोगों के बीच अपनी ताकत को बढ़ाना होगा. राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प देने की स्थिति या विकल्प बन पाने की स्थिति तक आना होगा.

येचुरी यही करने की कोशिश कर रहे हैं. वो चाहते हैं कि मौजूदा संसदीय सच्चाइयों के बीच चुनावी गठबंधन की बजाय एक व्यापक विपक्ष की ओर बढ़ा जाए ताकि कमजोर पड़ते दल मिलकर भाजपा को रोकने की कोशिश करें. ऐसा करना इन दलों के लिए भी ज़रूरी है और संविधान आधारित देश के लोकतंत्र के लिए भी. लेकिन उन्हें उनकी ही पार्टी में इसका विरोध झेलना पड़ रहा है. कोलकाता पार्टी कांग्रेस में येचुरी के इस प्रस्ताव को 31 वोट मिले जबकि विरोध में 55 वोट पड़े. इस तरह कारत गुट ने पार्टी की बंगाल और त्रिपुरा इकाई के फैसले को खारिज करते हुए एक शुद्धतावादी लाइन ले ली है. शुद्धतावाद की यह लड़ाई पार्टी के भविष्य के लिए आत्मघातक साबित हो सकती है.

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कारत का हठ

कारत जिस शुद्धतावाद की दुहाई दे रहे हैं उसके पक्ष में और येचुरी के प्रस्ताव के विरोध में उनको अपने तर्क पांच बार बदलने पड़े. कारत गुट किसी भी कीमत पर येचुरी के प्रस्ताव को पास नहीं होने देना चाहता था और इसमें वो सफल भी रहा. हालांकि पार्टी का तीन साल के अंतराल पर होने वाला राष्ट्रीय अधिवेशन अभी येचुरी के पास अंतिम दांव के तौर पर बचा है. राष्ट्रीय अधिवेशन इस वर्ष अप्रैल में हैदराबाद में होने वाला है और वहां येचुरी अपनी बात को पारित कराने के लिए अंतिम कोशिश कर सकते हैं.

लेकिन इस अंतर्कलह ने पार्टी को दो हिस्सों में तो बांट ही दिया है. ऐसे वक्त में जब पार्टी को अपना आधार बढ़ाने के साथ-साथ सहमति और सहयोग के लिए दूसरे दलों को भी साथ लेकर एक मज़बूत राजनीतिक दखल खड़ा करना चाहिए था, पार्टी अपने ही मतभेदों में उलझी नज़र आ रही है.

यह भी विचित्र है कि पार्टी का कारत धड़ा जिस शुद्धतावाद की दुहाई दे रहा है, वो खुद उसपर तटस्थ नहीं रहा है. ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए 1996 में इसी शुद्धतावाद की दुहाई दी गई थी, लेकिन कारत के नेतृत्व में ही पार्टी यूपीए का हिस्सा रही. भारत-अमरीका परमाणु समझौते पर यूपीए से अलग होने तक चार साल बीत गए थे. यूपीए-1 को बाहर से समर्थन देने के बाद कारत आज फिर से उसी शुद्धतावाद की दुहाई दे रहे हैं.

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1996 में ज्योति बसु को रोकना कारत और उनके साथियों की पहली भूल थी. क्या कारत चाहते हैं कि वामदल सत्ता में तबतक न आएं जबतक वामदलों को स्पष्ट बहुमत के साथ लोग संसद नहीं पहुंचा देते. क्या तबतक बदलाव में बिना भागीदार बने केवल संघर्ष का नारा दिया जाता रहे. और सवाल केवल बदलाव का नहीं है. उससे भी बड़ा सवाल है लगातार लोगों के अधिकारों और संसाधनों की हो रही लूट. इसे रोकने के लिए और नीतिगत स्तर पर जनविरोधी फैसलों को लगाम लगाने के लिए अगर वामदल सत्तासीन दलों के साथ आते हैं तो इसमें बुराई क्या है. क्या कारत चाहते हैं कि जबतक लोग सब तरफ से हारकर सत्ता की कमान उन्हें न सौंप दें, तबतक देश में लोगों की अधिकारों, जीवन और संसाधनों से खिलवाड़ होता रहे और देश गर्त में जाता रहे.

ज्योति बसु ने बंगाल में शानदार काम किया था. वो देश का नेतृत्व करके एक मिसाल कायम कर सकते थे. लोगों को वाम से उम्मीद बंधती. राजनीतिक प्रसार में भी इस कदम का लाभ मिलता. लेकिन ऐसा कुछ भी होने से रोक दिया गया. और अब दूसरी बड़ी ग़लती की जा रही है जो सीपीएम को शुद्धतावाद की कुंठा से ज़्यादा कुछ नहीं दे सकती.

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कारत खेमे का एक तर्क यह भी है कि कांग्रेस से ही हमारी तीनों वामशासित राज्यों में मुख्य लड़ाई रही है. तो क्या सीपीएम अब क्षेत्रीय दल के रूप में ही अपने को सीमित कर चुकी है? उनके पास राष्ट्रीय राजनीति में दखल देने और बड़ी राजनीति के लिए एक व्यापक दृष्टि रखने की ज़रूरत क्या मायने नहीं रखती. क्या उन्हें नहीं लगता है कि कमज़ोर विपक्ष वाली राजनीति में दलों को बचाए रख पाने का संकट गहराता जा रहा है और क्या अकेले दम पर अपनी किताब और झंडा लेकर सीपीएम, मोदी को रोक पाने में सक्षम है?

कारत के तर्क सैद्धांतिक रूप से भले ही सही लगें, लेकिन उनमें व्यवहारिकता का अभाव है. ऐसा लगता है कि कारत अभी भी जेएनयू के अपने छात्र जीवन के दौर से बाहर नहीं निकल पाए हैं. इस अभाव में तो अब जेएनयू की छात्र राजनीति भी नहीं रही. वहां से कन्हैया कुमार, उमर खालिद और शहला जैसे युवा चेहरे एक व्यापक लड़ाई के लिए अपने राजनीतिक दायरों को बढ़ाने में लगे हैं. और कमज़ोर होते वाम के लिए, बदले समय की राजनीति और पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली होती राजसत्ता के दौर में इसके अलावा विकल्प भी नज़र नहीं आता है.

कारत जिस राजनीति की बात कर रहे हैं, उसके लिए उन्हें चाहिए कि वो चुनाव आधारित वर्तमान प्रणाली को खारिज करके शुद्ध और सैद्धांतिक राजनीतिक उत्थान की दिशा में आगे बढ़ें. और फिर देखें कि उनकी पार्टी या साथियों में से कौन उनके साथ आगे बढ़ना चाहते हैं. कम्युनिस्ट राजनीति में नंबूदरीपाद से लेकर सुरजीत तक की परंपरा को खारिज करके वो अपना अलग रास्ता बना सकते हैं जैसा कि वाम विचार के कुछ दल करते रहे हैं.

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कारत के इस पैतरे का सबसे ज़्यादा लाभ किसी और को नहीं बल्कि खुद भाजपा और संघ को है. कारत भले ही केरल में उनसे लड़ने का दम भरते रहें, देशभर में इससे सीपीएम और वामदलों की राजनीति कमज़ोर ही होगी. इस शुद्धतावाद के बुखार में ओढ़ी गई अस्पृश्यता सीपीएम को अलग-थलग खड़ा रखेगी जो पार्टी की एक राष्ट्रीय भूमिका और राजनीति के लिए बहुत ही नकारात्मक स्थिति है.

वामदलों की सबसे बेहतर बात यह रही है कि उनके पास बाकी राजनीतिक दलों से बेहतर नैतिक औऱ साफ-सुथरी राजनीति का अतीत है. ऐसे में वामदल विकल्प की राजनीति को खड़ा करने के लिए एक सबसे सुग्राह्य धड़े के तौर पर अपनी भूमिका निभा सकते हैं. वामदलों में अभी भी वो ताकत है जिसके चलते कई परस्पर विरोधी दल एकसाथ इकट्ठा हो सकते हैं और विकल्प की राजनीति के लिए संवाद शुरू कर सकते हैं.

कारत का ये शुद्धतावाद इस कठिन समय में आत्मघाती साबित हो सकता है. उनका हठ और अहम वामपंथी राजनीति और खुद सीपीएम को ले डूबेगा.

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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