राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ऐसा सांस्कृतिक संगठन है जो अपने राष्ट्रवाद के लिए जाना जाता है तो सांप्रदायिकता के सवाल पर विरोधी उसे घेरते भी हैं. गुरुवार को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संघ के कार्यक्रम में शिरकत की. इस पर जमकर सियासत हो रही है. हालांकि RSS के लिए ये वाकई गौरव की बात है कि प्रणब दा ने उसके संस्थापक हेडगेवार को भारत माता का सच्चा सपूत बताया.
इतिहास के पन्नों से, गुलामी की यादों से, हिंदुत्व की आस्था से, भारतीयता की भावना से, तिलक के प्रभाव में और जनमानस के दबाव में 93 साल पहले एक संगठन का जन्म हुआ. तब सिर्फ 12 लोग थे, लेकिन आज करोड़ों लोग उस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संगठन के हामी हैं. वो राजनीति से दूर है लेकिन सत्ता की राजनीति में वो ताब नहीं कि उसके इशारों को नजरअंदाज करके निकल जाए.
संघ की पहचान ही हिंदुत्व की रहनुमाई का है. संघ का अभिमान ही हिंदू राष्ट्र की भावनाओं से जुड़ा है. संघ का इरादा अखंड भारत का है. संघ का वादा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पन्नों में भटकता है, लेकिन भारत का धर्मनिरपेक्ष तानाबाना इसी संघ से तमाम सवाल भी पूछता है. इसीलिए जिंदगी भर कांग्रेस में रहे, नेहरू-इंदिरा की राजनीति में रचे-बसे प्रणब मुखर्जी जब इस संघ के मुख्यालय में पहुंचे तो हंगामा भी मचा, लेकिन अब सबके जेहन में वो विचार हैं जिसका इजहार संघ के मंच से दादा ने कर दिया.
संघ की सादगी और भव्यता को एक साथ अनुभव करते हुए पूर्व राष्ट्रपति ने आरएसएस के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार को भारत माता का सच्चा सपूत बताया. प्रणब मुखर्जी ने हेडगेवार की जन्मस्थली पर विजिटर बुक में लिखा- आज मैं यहां भारत माता के एक महान सपूत के प्रति अपना सम्मान जाहिर करने और श्रद्धांजलि देने आया हूं.
प्रणब मुखर्जी का विजिटर बुक में लिखा बयान आरएसएस के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है. वैसे इससे पहले प्रणब मुखर्जी उस भवन में भी गए जहां हेडगेवार की स्मृतियां संजोकर रखी हुई हैं.
ये सही है कि RSS के कार्यक्रमों में पहले भी अलग विचारधारा वाले लोग आते रहे हैं. गुलामी के दिनों में खुद महात्मा गांधी भी एक कार्यक्रम में गए थे और आजाद भारत में दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी. लेकिन पिछले 25-30 वर्षों में बदली देश की राजनीति और संघ को लेकर सिकुड़ते नजरिए के बीच राष्ट्रपति जैसे शिखर के पद को सुशोभित करने वाले प्रणब मुखर्जी का संघ की तारीफ करना वाकई बड़ी बात है.
नागपुर के रेशमबाग से वो ध्वनि निकली है जिसका बड़ा राजनीतिक अर्थ है. देर-सबेर देश की राजनीति पर वो दस्तक जरूर देगी.
1925 में आरएसएस का गठन करते वक्त हेडगेवार के पास सिर्फ 12 लोग थे. लेकिन अपने इरादों और मान्यताओं में वो इतने दृढ़ थे कि संघ के अभी सौ साल पूरे हुए भी नहीं, लेकिन हिंदुस्तान के हर कोने में उसकी धमक दिखती है. उसी संघ से तमाम मुद्दों पर घनघोर मतभेद रखने वाले प्रणब मुखर्जी उसके मंच पर पहुंचे तो इतिहास के उन पन्नों को खोला जिसमें भारत की परंपरा और गौरव का बोध है.
धर्मनिरपेक्षता के आंगन में जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दूर से ही सलाम किया जाता था, उस आरएसएस के आंगन में खुद पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी ने मौजूदा राजनीति का व्याकरण बदल दिया. प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी में संघ प्रमुख ने नए आरएसएस की व्याख्या की.
एक आंकड़ा देखिए जो बताता है कि संघ की स्वीकृति लगातार बढ़ती जा रही. उसका दायरा भी बढ़ता जा रहा. मोदी सरकार बनने से दो महीने पहले देश भर में 44 हजार 982 शाखाएं लगती थीं, जबकि इस साल के मार्च में ये संख्या बढ़कर 58 हजार 967 हो गई है. देश के करीब 95 फीसदी भूगोल पर संघ के कार्यकर्ताओं की मौजूदगी है. विरोधी मानते हैं कि संघ का ये विस्तार उसके डर का विस्तार है, लेकिन संघ मानता है कि उसने सबको जोड़कर अपनी ताकत बढ़ाई है.
सारे हो हंगामे के बीच संघ कार्यकर्ताओं के बीच प्रणब मुखर्जी की मौजूदगी ने आरएसएस के लिए संभावनाओं का एक और दरवाजा खोल दिया है. आरएसएस अपने गठन के बाद से ही सवालों और विवादों का सामना करता रहा है. लेकिन इस दौरान उसकी ताकत बढ़ती गई. आजादी के बाद कई ऐसे मौके आए जब संघ की मदद सरकारों ने भी ली. पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर उनकी बेटी इंदिरा गांधी का संघ से कहीं ना कहीं एक नाता जुड़ा.
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का ये वो उभार है जिसने देश की धड़कनों को अपनी धड़कनों में शामिल कर लिया. सांप्रदायिकता के आरोपों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राष्ट्रवाद की एक ऐसी ज्योति जलाई जिसकी चमक में बीजेपी सत्ता के शिखर पर है और नागपुर सत्ता का आध्यात्मिक केंद्र. ये बरसों की तपस्या का परिणाम है.
आरएसएस पर भले ही कुछ लोग हिंदू सांप्रदायिक संगठन होने का आरोप लगाते हैं लेकिन आरएसएस ने सत्ता के विरोध में जो भी खड़ा हुआ, उसका साथ दिया. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के नागपुर जाने के साये में सवाल उठा कि उनको जाना चाहिए या नहीं. ये भी सलाह आई कि उनको क्या बोलना चाहिए. लेकिन संघ ने ऐसे तमाम लोगों को पहले भी अपने कार्यक्रमों में बुलाया है जिनमें रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के नेता और दलित चिंतक दादासाहेब रामकृष्ण सूर्यभान गवई और वामपंथी विचारों वाले कृष्णा अय्यर जैसे लोग शामिल हैं.
1975 में इमरजेंसी के दौरान आरएसएस पूरी तरह जेपी आंदोलन में कूद पड़ा था. यहां तक कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो पूर्व कांग्रेसी मोरारजी देसाई के नाम पर भी संघ में सहमति थी. 1989 में जब राजीव गांधी के खिलाफ विपक्षी एकता के नायक बनकर वीपी सिंह उभरे तो संघ के साए में बीजेपी भी उनके साथ खड़ी थी.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुद को राजनीति से दूर रहने वाला संगठन बताता है लेकिन ये भी सही है कि उसकी तैयार की हुई बुनियाद पर बीजेपी बीस साल पहले सत्ता में आई और अब चार साल से पूर्ण बहुमत के साथ हिंदुस्तान की हुकूमत चल रही है.