आगामी लोकसभा चुनावों के बाद एक स्थिर सरकार की वकालत करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आगाह किया कि मनमौजी अवसरवादियों पर निर्भर खंडित सरकार भारत के लिए विनाशकारी होगी. राष्ट्रपति ने देश की जनता से अपील की कि 2014 में होने वाले चुनावों में हम ‘भारत को निराश नहीं कर सकते.’ अब समय आ गया है कि हम आत्ममंथन करें और काम पर लगें.
उन्होंने कहा कि आने वाले चुनाव में कौन जीतता है, यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह बात कि चाहे जो जीते, उसमें स्थायित्व, ईमानदारी तथा भारत के विकास के प्रति अटूट प्रतिबद्धता होनी चाहिए.
65वें गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में मुखर्जी ने कहा, ‘मैं निराशावादी नहीं हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि लोकतंत्र में खुद में सुधार करने की विलक्षण योग्यता है. यह ऐसा चिकित्सक है जो खुद के घावों को भर सकता है और पिछले कुछ वर्षों की खंडित तथा विवादास्पद राजनीति के बाद 2014 को घावों के भरने का वर्ष होना चाहिए. मुखर्जी ने कहा कि वर्ष 2014 भारत के इतिहास में एक चुनौतीपूर्ण क्षण है. हमें राष्ट्रीय उद्देश्य तथा देशभक्ति के उस जज्बे को फिर से जगाने की जरूरत है जो देश को अवनति से उपर उठाकर उसे वापस समृद्धि के मार्ग पर ले जाए.
उन्होंने बेरोजगार युवाओं को रोजगार के अवसर देने की वकालत करते हुए कहा कि ऐसे युवा गांवों और शहरों को 21वीं सदी के स्तर पर ले आएंगे. उन्हें एक मौका दें और आप उस भारत को देखकर दंग रह जाएंगे जिसका निर्माण करने में वे सक्षम हैं.
राष्ट्रपति ने कहा, ‘झूठे वायदों की परिणति मोहभंग में होती है, जिससे क्रोध भड़कता है तथा इस क्रोध का एक ही स्वाभाविक निशाना होता है- सत्ताधारी वर्ग.’ उन्होंने कहा कि यह क्रोध तभी शांत होगा जब सरकारें वह परिणाम देंगी जिनके लिए उन्हें चुना गया था. अर्थात सामाजिक और आर्थिक प्रगति और वो भी कछुए की चाल से नहीं बल्कि घुड़दौड़ के घोड़े की गति से.
मुखर्जी ने चेतावनी दी कि महत्वाकांक्षी भारतीय युवा, उसके भविष्य से विश्वासघात को क्षमा नहीं करेंगे. जो लोग सत्ता में हैं, उन्हें अपने और लोगों के बीच भरोसे में कमी को दूर करना होगा. जो लोग राजनीति में हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि हरेक चुनाव के साथ एक चेतावनी जुड़ी होती है यानी ‘परिणाम दो अथवा बाहर हो जाओ’.
विचारों के मतभेद को लोकतंत्र का हिस्सा बताते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि एक लोकतांत्रिक देश सदैव खुद से तर्क-वितर्क करता है और यह स्वागत योग्य है क्योंकि हम विचार-विमर्श और सहमति से समस्याएं हल करते हैं, बल प्रयोग से नहीं. उन्होंने कहा कि परंतु विचारों के ये स्वस्थ मतभेद हमारी शासन व्यवस्था के अंदर अस्वस्थ टकराव में नहीं बदलने चाहिए.
उन्होंने कहा कि इस बात का आक्रोश है कि क्या हमें राज्य के सभी हिस्सों तक समतापूर्ण विकास पहुंचाने के लिए छोटे-छोटे राज्य बनाने चाहिए. बहस वाजिब है लेकिन इसे लोकतांत्रिक मानदंडों के अनुरूप होना चाहिए. फूट डालो और राज करो की राजनीति हमारे उप-महाद्वीप से भारी कीमत वसूल चुकी है. यदि हम एकजुट होकर कार्य नहीं करेंगे तो कुछ नहीं हो पाएगा.
देश की अर्थव्यवस्था के बारे में मुखर्जी ने कहा कि पिछले दशक में विश्व की एक सबसे तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था के रूप में भारत उभरा है लेकिन पिछले दो वर्षों में आई मंदी कुछ चिंता की बात हो सकती है लेकिन निराशा की नहीं. उन्होंने कहा कि अर्थव्यवस्था में पुनरुत्थान की हरी कोपलें दिखाई देने लगी हैं. इस वर्ष की पहली छमाही में कृषि विकास दर बढ़कर 3.6 तक पहुंच चुकी है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था उत्साहजनक है.
मुखर्जी ने कहा कि भारत को अपनी समस्याओं के समाधान खुद खोजने होंगे. यदि हम ऐसा नहीं करते तो यह अपने देश को गहरे दलदल के बीच भटकने के लिए छोड़ने के समान होगा.
उन्होंने कहा कि हमें अविवेकपूर्ण नकल का आसान विकल्प नहीं अपनाना चाहिए क्योंकि यह हमें भटकाव में डाल सकता है. उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने पर बल देते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि शिक्षा भारतीय अनुभव का अविभाज्य हिस्सा रही है और वह केवल तक्षशिला तथा नालंदा जैसी प्राचीन उत्कृष्ट संस्थाओं के संदर्भ में ही नहीं वरन हाल की 17वीं और 18वीं सदी की बात कर रहे हैं.
उन्होंने कहा कि आज हमारे उच्च शिक्षा के ढांचे में 650 से अधिक विश्वविद्यालय और 33,000 से अधिक कॉलेज हैं. लेकिन अब हमारा ध्यान शिक्षा की गुणवत्ता पर होना चाहिए. उन्होंने भरोसा दिलाया कि भारत शिक्षा में विश्व की अगुवाई कर सकता है. बस उसे उच्च शिखर तक ले जाने वाले संकल्प तथा नेतृत्व को पहचानना चाहिए.
मुखर्जी ने कहा कि शिक्षा अब केवल कुलीन वर्ग का विशेषाधिकार नहीं है बल्कि सबका अधिकार है और यह देश की नियति का बीजारोपण है. उन्होंने एक ऐसी शिक्षा क्रांति शुरू करने की बात कही जो राष्ट्रीय पुनरत्थान की शुरुआत का केंद्र बन सके.