ये अपील इसलिए नहीं कि मैं मोदी या बीजेपी समर्थक हूं और उसकी दिल्ली में पराजय से दुखी हूं. यदि दुख है तो इस बात का कि देश के प्रधानमंत्री ने दिल्ली चुनाव में अपने नाम पर वोट मांगे और लोगों ने नहीं दिए. अब सवाल उठता है कि क्या एक प्रधानमंत्री को ऐसा करना चाहिए? जब उन्हें पांच साल तक के लिए संसदीय व्यवस्था का सर्वोच्च पद संभालने की जिम्मेदारी जनादेश से मिली है, तो वे राज्यों के चुनाव में बार-बार अपना नाम क्यों उछाल रहे हैं? अब इस तर्क के उलट यह तर्क दिया जा सकता है कि कानून में तो ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि किसी संसदीय पद को संभालने वाला व्यक्ति चुनाव प्रचार नहीं करेगा. तो उन्हें क्यों रोका जाए. लेकिन इससे बहस का स्कोप कम नहीं हो जाता.
क्या प्रधानमंत्री सिर्फ एक पार्टी के?
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने कई राज्यों में प्रचार किया. उसी शैली में जैसे वे लोकसभा चुनाव में करते थे. महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में उन्होंने बीजेपी को वोट देने की बात की. कहा कि यदि बीजेपी की सरकार आई तो उसका केंद्र के साथ सामंजस्य अच्छा रहेगा और विकास तेजी से होगा. तो क्या यदि विपक्षी पार्टी की सरकार आती है तो राज्य की प्रगति धीमी होती है. मोदी ने गुजरात डेवलपमेंट मॉडल उसी दौर में खड़ा किया, जिस समय केंद्र में यूपीए सरकार थी.
सोचा नहीं, हार जाएंगे तो क्या होगा?
दिल्ली में ही आप की सरकार बन गई है. गुरुवार को अरविंद केजरीवाल अपने शपथ ग्रहण समारोह का न्योता देने प्रधानमंत्री मोदी से मिलने पहुंचे. मोदी ने उन्हें बधाई दी. लेकिन उस कड़वाहट का क्या, जो उन्होंने प्रचार के दौरान केजरीवाल को नक्सली और झूठा कहकर बढ़ा दी थी. कहते हैं, कहे गए शब्द कभी वापस नहीं होते. अनचाहे ही सही, लेकिन मोदी ने क्या ऐसा करके प्रधानमंत्री पद को धक्का नहीं पहुंचाया?
वर्ल्ड लीडर बनने की राह में खुद ने लगाया पेंच
दिल्ली चुनाव परिणाम आने के बाद दुनियाभर के मीडिया ने हेडलाइन केजरीवाल के बजाए मोदी को बनाया. सीएनएन ने मोदी की चुटकी लेते हुए कमेंट किया कि न्यूटन का सिद्धांत है, जो ऊपर जाता है, उसे नीचे आना होता है. बीबीसी ने भी इसे मोदी के लिए झटका बताया और लिखा कि वे ऑफिस संभालने के बाद से दुनिया के नेताओं और निवेशकों में लोकप्रिय हो रहे थे, उनकी बुरी हार हुई है. पाकिस्तान के सभी खबरों में सिर्फ मोदी पर ही निशाना साधा गया. ये सब कहने का मौका तो मोदी ने ही दिया.
पार्टी संगठन और पार्टी अध्यक्ष किस काम के?
चुनाव पार्टियां लड़ती हैं. टिकट पार्टियों के चुनाव चिन्ह पर दिया जाता है. प्रचार की रूपरेखा पार्टी बनाती है. वादे पार्टी की ओर से होते हैं. तो चुनाव प्रचार में चेहरा संसदीय पद पर बैठे हुए लोगों को क्यों बनाया जाना चाहिए? सिर्फ इसलिए कि वे सत्ता का उपयोग करते हुए निर्णय ले रहे हैं. उन्हें ऐसे पद या व्यवस्था के बारे में वादे करने का क्या अधिकार, जिसके लिए वे सीधे तौर पर दावेदार ही नहीं हैं. हां, पार्टी है. तो पार्टी अध्यक्ष अपने उम्मीदवारों की वकालत करें.
प्रधानमंत्री जी, 2019 में आप बेशक मैदान में आइएगा. प्रचार आपका अधिकार होगा और जिम्मेदारी भी. देश जानना चाहेगा कि अपनी सरकार के परफॉर्मेंस को लेकर आप क्या सोचते हैं. नया टारगेट क्या है. फिर अगले पांच साल के लिए जनता तय करेगी.