शब्बीर बाचा परेशान लग रहे हैं. 55 साल के बाचा को लकड़ी के ठेकेदार ने फोन पर बताया कि उन्होंने प्लाईवुड के लिए जो ऑर्डर दिया था, उसे पहुंचने में कुछ और दिन लगेंगे.
पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत की राजधानी पेशावर के एक दर्जन ताबूत निर्माताओं में से एक बाचा, जिनका कारोबार आजकल तेज रफ्तार से चल रहा है, पूछते हैं, ''क्या हो रहा है? मैं एक दिन के लिए भी ताबूत बनाना नहीं रोक सकता.''
किसी जमाने में ताबूत को यहां विलासिता माना जाता था, खासकर अमीरों-पैसे वालों का विशेषाधिकार. गरीब अमूमन अपने रिश्तेदारों की लाशों को सफेद कफन में लपेटकर दफना दिया करते थे. लेकिन अब लकड़ी के बक्से जरूरत बन गए हैं.
बम विस्फोटों समेत फिदायीन हमलों और आतंकी हमलों की झ्ड़ी लगने की वजह से लाश के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और उन्हें दफनाने से पहले जिस्म के हर हिस्से को बक्से में जमा करना होता है.
इस्लामाबाद की स्वयंसेवी संस्था इंडिविजुअललैंड की रिपोर्ट के मुताबिक, 2003 से आतंकवादी हिंसा में 9,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. खासकर लाल मस्जिद पर 2007 में सैनिक कार्रवाई के बाद से हमले बढ़ गए हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया है, ''पाकिस्तान में 2001 तक कोई फिदायीन हमला नहीं हुआ था लेकिन अकेले 2009 में 87 हमलों समेत 200 से ज्यादा हमले हो चुके हैं.''
पेशावर, कराची और सेना के मुख्यालय वाले शहर रावलपिंडी जैसे बड़े शहरों में आतंकी हमलों की वजह से ताबूत निर्माताओं की चांदी हो गई है. वे पहले के मुकाबले काफी पैसा कमा रहे हैं.
बाचा का कहना है, ''हां, हम पैसा कमा तो रहे हैं लेकिन हम खुश नहीं हैं क्योंकि हर दिन बर्बादी और मुसीबत लाता है.'' वे बताते हैं कि भारी मांग की वजह से उन्हें सरकारी ठेकेदारों, एढ़ी फाउंडेशन और जमीला सुल्ताना फाउंडेशन जैसे निजी कल्याणकारी संगठनों के लिए समय पर ताबूत तैयार करने में खासी दिक्कतें पेश आ रही हैं.
ये संगठन फिदायीन हमले के शिकार लोगों को फिर से बसाने और उनकी जिंदगी संवारने में मदद करते हैं और उन लोगों के रिश्तेदारों की लाशों को दफनाने में भी मदद करते हैं जो इसका खर्च बर्दाश्त नहीं कर सकते.
39 साल के अहमद खान कहते हैं, ''अगर शहर प्रशासन ने ताबूत नहीं दिया होता तो हमें उसे खरीदना पड़ता.'' पेशावर के मुख्य बाजार में 11 जनवरी को दोहरे फिदायीन हमले में उनका छोटा भाई 17 वर्षीय अहमद सुल्तान मारा गया. भीड़ भरे बाजार में हमले से मरने वाले 80 लोगों में सुल्तान भी शामिल था. विस्फोट इतना जोरदार हुआ था कि मरने वालों के जिस्मों के हिस्से चारों ओर बिखर गए जिसकी वजह से लाशों को इकट्ठा करना मुश्किल हो गया. अहमद खान गीली आंखों से अपने भाई के बारे में बताते हैं, ''हमने कई हिस्से दफनाए.''
मोहम्मद आलम तीन कारखानों में ताबूत बनाते हैं और रावलपिंडी के दो शोरूम में उन्हें जमा करते हैं. 52 वर्षीय आलम का कहना है, ''यह कहना अच्छा तो नहीं लगता लेकिन खासकर पिछले एक साल के दौरान मेरा कारोबार काफी बढ़ गया है.''
पिछले छह महीने के दौरान उन्होंने प्रति ताबूत 10,000 रु. की दर से प्लाईवुड के 500 ताबूत बेचे हैं. आलम कहते हैं, ''इससे मुझे अफगान युद्ध की याद आती है जब हमने सीमा पार ताबूत की सपलाई की थी.'' उनका कुनबा 1940 से ही ताबूत बनाने-बेचने का काम कर रहा है. 1991 के बाद से कारोबार काफी कम हो गया था. उनका कहना है, ''अफगान युद्ध के बाद मेरा कारोबार पहली बार 2007 में बढ़ा.''
स्वात के ताबूत व्यापारी 45 वर्षीय लईक अहमद का कहना है, ''ताबूत अमीर लोग ही खरीदा करते थे. लेकिन अब हालात बदल गए हैं.'' लईक ने कहा, ''बम धमाकों और फौजी कार्रवाइयों से ताबूतों की बिक्री बढ़ गई है.'' उनका दावा है कि वे इस साल मई से हर रोज 20 ताबूत बेच रहे हैं. आतंकवाद शुरू होने से पहले हर रोज चार से पांच ताबूत ही बिक पाते थे.
देश में सबसे पुराने ताबूत निर्माता एंटोनियो कुटिन्हो के लिए ताबूत बनाने वाले कराची के एलन लॉब का कहना है कि एक ताबूत की लागत उसके टाइप और क्वालिटी से तय होती है. उनका कहना है कि किसी ताबूत को बनाने में 5,000 रु. से 40,000 रु. तक की लागत आ सकती है.
पेशावर और नौशेरा समेत खैबर पख्तूनख्वा ह्ढांत के विभिन्न शहरों में दुकानों के बाहर रखे ताबूतों से इसके कारोबार का अंदाजा लगाया जा सकता है. पेशावर का आवासीय एवं वाणिज्यिक क्षेत्र मुंडा बेरी ताबूत व्यापारियों का गढ़ है. वे वहां दो दशक से ज्यादा समय से अपना कारोबार कर रहे हैं. वहां ताबूत सड़क के किनारे फर्नीचर की तरह नुमाइश के लिए रखे होते हैं. कभी-कभी उनकी वजह से ट्रैफिक भी जाम हो जाता है.
इस्लामाबाद में रहने वाले मनोविज्ञानी शिराज 'सैन, जो मूलतः पेशावर के रहने वाले हैं, कहते हैं, ''यह खासकर बच्चों के लिए नागवार नजारा होता है. जब भी मेरे बच्चे ताबूत देखते हैं तो वे अजीब-से सवाल पूछते हैं.'' रावलपिंडी के राजा बाजार में रहने वाली तीन बच्चों की मां शमीम अख्तर कहती हैं, ''मैंने अपने बच्चों से कह रखा है कि वे ताबूत की दुकानों के सामने से गुजरते वक्त अपनी नजरें झुका लिया करें.''
ताबूत बनाने वाले भी लोगों की परेशानी से वाकिफ हैं लेकिन उनके सामने चारा नहीं है.
पेशावर के 40 वर्षीय व्यापारी जहांजेब का कहना है, ''मैं उनकी परेशानियों को समझ्ता हूं लेकिन मैं अपना कारोबार कहीं और नहीं ले जा सकता.'' उनकी दलील है कि दफनाने के लिए जरूरी सामान आवासीय इलाकों के नजदीक ही होना चाहिए ताकि जरूरत पड़ने पर आसानी से मिल जाए.
रावलपिंडी, कराची और पेशावर के हालात के उलट स्वात घाटी के ताबूत बनाने वालों का कहना है कि 2009 में इलाके में आतंकियों के सफाए के लिए चलाई गई कामयाब फौजी मुहिम के बाद से यहां ताबूतों का कारोबार ठंडा पड़ गया है.
55 वर्षीय जाकिर शाह का कहना है, ''2006 और 2009 के दौरान हमारा कारोबार अच्छा चल रहा था. लेकिन कामयाबी के साथ चलाई गई फौजी मुहिम से दहशतगर्दी खत्म हो गई लेकिन इसके साथ ही ताबूतों की मांग भी काफी कम हो गई क्योंकि फिदायीन हमलों और धमाकों का दौर खत्म हो गया.''
तीन बड़े शहरों-इस्लामाबाद, रावलपिंडी और पेशावर के अस्पताल ताबूत के बड़े खरीदारों में शामिल हैं. पेशावर के लेडी रीडिंग हॉस्पिटल के अब्दुल हमीद का कहना है कि उनके अस्पताल ने 2009 में अपने पैसे से 300 से ज्यादा ताबूत खरीदे. उन्होंने बताया, ''कल्याणकारी संगठन भी ताबूत समेत दफनाने का दूसरा सामान देते हैं.'' जमात-ए-इस्लामी के सामाजिक कल्याण संगठन अल-खिदमत फाउंडेशन ने पिछले अक्तूबर और नवंबर के दौरान पेशावर के अलग-अलग अस्पतालों को 100 से ज्यादा ताबूत दिए.
हाल के हमलों के शिकार हुए लोगों में कई ऐसे लोग शामिल थे जो देश के अलग-अलग इलाकों से शहर में रोजी-रोटी के लिए आए हुए थे. अक्सर ऐसे लोगों की लाशों को अलहदा शहरों में उनके परिजनों तक पहुंचाने के लिए ताबूत का इस्तेमाल करना पड़ता है. लाश को कराची से पेशावर ले जाने के लिए 26,000 रु. और लाहौर ले जाने के लिए 21,000 रु. चुकाने पड़ते हैं.
एढ़ी फाउंडेशन की फील्ड एंबुलेंस सर्विस समेत चार स्वयंसेवी संगठन और निजी ट्रांसपोर्टर कल्याणकारी सेवाएं मुहैया कराते हैं. वे प्रति किलोमीटर 10 से 12 रु. लेते हैं. ढोई जाने वाली लाशों की संख्या में कमी पाकिस्तान की खस्ता माली हालत दिखाती हैः 2008 के पहले चार महीनों के दौरान कराची से 207 लाशें दूसरे प्रांतों में ले जाई गईं, जबकि 2010 में उनकी तादाद घटकर महज 13 रह गई, यानी इसमें 90 फीसदी से ज्यादा गिरावट आ गई. पैसे की कमी लाशों को रिश्तेदारों तक पहुंचाने में भी दिक्कत खड़ी कर रही है.
इस कारोबार के इर्दगिर्द दूसरे उद्योग भी पनप गए हैं.
कराची की साखी हसन कब्रगाह में कब्र खोदने वाले अजहर 'सैन का कहना है कि एक कब्र की कम-से-कम कीमत 5,000 रु. तक हो सकती है, जो प्रांतीय सरकार की ओर से तय कीमत से दोगुनी है. इसमें कब्र खोदने, स्लैब रखने और कब्र के सिरहाने पत्थर रखने का खर्च शामिल है.
इस पैसे को कब्र खोदने वाले, यूनियन काउंसिल और प्रांतीय सरकार के बीच बांट दिया जाता है. कुछ कब्र खोदने वाले मरने वालों के रिश्तेदारों से ज्यादा पैसे वसूलने के लिए कब्र के लिए जगह की किल्लत बताने लगते हैं. इस तरह से एक ओर जहां पाकिस्तान आतंकी हमलों से ललुहान है, वहीं इंसानी लाशों के लिए कफन बेचने वाले इस मौके को भुनाने से चूक नहीं रहे हैं.
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