पंजाब के किसी भी गांव में जाएं तो खेतों के बीच एक बेतरतीब सा कमरा दिखेगा. कच्चा-पक्का. सामने मूंज की खाट. बेमेल जनाना-मर्दाना कपड़े पसरे हुए. हरी-भरी फसल के बीच बेडौल नजरबट्टू से लगते कमरे से पानी का एक पंप सटा हुआ. ये मोटर रूम है, जहां प्रवासी रहते हैं. यही इनका ठिकाना है. यही लक्ष्मण रेखा. दशकों से पंजाब के खेत-खलिहान संभालते प्रवासियों का गांव के भीतर जाना मना है.
वजह देते हुए पंजाब के ही लोग कहते हैं- हमारा कल्चर 'इन भैयों जैसा' नहीं.
करीब तीन साल पहले पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के एक बयान पर काफी बवाल हुआ था. उन्होंने यूपी, बिहार से आए मजदूरों को भैया कह दिया था, जिसपर बाद में उन्हें माफी मांगनी पड़ी. कुछ इसी तरह का मामला साल 2008 में महाराष्ट्र में भी दिखा, जब राज ठाकरे ने अपने जन्मदिन पर कथित तौर पर भैया लिखा केक कट किया था. तब से ही भैया शब्द पर विवाद रह-रहकर जोर पकड़ता रहा, खासकर पंजाब में.
जो शब्द दिल्ली से लेकर बिहार तक कॉमन है, पंजाब पहुंचते हुए वो एक अलग चेहरा ले लेता है.
आप बाहर से आए हैं. कद छोटा है. रंग कुछ दबा हुआ है. पंजाबी के अलावा कोई दूसरी जबान बोलते हैं और पंजाब में मजदूरी करते हैं तो आप 'भैया' हैं. नेह-सम्मान में पगी हुई नहीं, बल्कि पान की पीक जैसे पिच्च से थूकी हुई पहचान.
पिछले महीने मोहाली जिले के गांवों में कुछ अलग हुआ. यहां कुछ गांववालों ने रातोरात प्रवासियों को बाहर निकाल दिया. वहीं कुछ ऐसे गांव भी थे, जिन्होंने अपने यहां बोर्ड लगा दिया. 11 कायदों का बोर्ड. ये नियम-कानून दूसरे राज्यों से आए मजदूरों के लिए थे. इनमें से एक कि वे रात 9 बजे के बाद घर से बाहर नहीं निकल सकते. या फिर वे गांव के भीतर किराए के मकान नहीं ले सकते. कपड़े पहनने के भी नियम बने.
स्थानीय लोगों की दलील है कि बाहरियों के आने से उनके यहां चोरी-चकारी बढ़ गई. औरतों से छेड़छाड़ बढ़ गई. मारपीट ज्यादा होने लगी. स्थानीय औरतों को भी दूसरे सूबों की जनानियों से ढेर की ढेर शिकायत.
वहीं राज्य की इकनॉमी की नींव बन चुके प्रवासी कुछ भी कहने को राजी नहीं. कुरेदने पर इतना-भर कहते हैं- यहां पैसे तो है, लेकिन इज्जत नहीं. अब यहां और नहीं रहना.
‘पंजाबी vs बाहरी’ का तानाबाना समझने के लिए हमने मोहाली के कई गांव खंगाले.
शुरुआत मुंदो संगतियां से हुई. इस छोटे-से गांव के लोगों ने अगस्त में एक बड़ा फैसला लेते हुए सभी प्रवासियों को गांव से बाहर निकाल दिया. वहीं कुछ लोग काम से भी हटा दिए गए. शोरगुल मचा. पुलिस-प्रशासन आया. बात अदालत तक पहुंची. इसके बाद से सन्नाटा है.
दोपहर को हम जब गांव पहुंचे, वहां की चौपाल पर कुछ बुजुर्ग बैठे हुए थे. जिक्र छिड़ते ही कहते हैं- वे लोग गंदगी से रहते. मारधाड़ करते. सुबह हमारे लोग गुरु घर जाते तब वे दातौन चबाते हुए अधनंगे घूमते. उनकी जनानियां भी लक्षण की ठीक नहीं थीं. कल्ले-कल्ले घूमा करतीं. माहौल बिगड़ रहा था.
तो आप लोगों ने उन्हें निकालने के लिए क्या किया?
मता (रिजॉल्यूशन पास करना) किया था जी हमने, यहीं बैठकर. गुरुद्वारा कमेटी के लोग थे और बाकी गांववाले भी. सबने तय किया कि प्रवासी अब गांव के भीतर नहीं रहेंगे.
अब क्या कोई भी गांव के भीतर नहीं?
न जी, सब जा चुके. किसी-किसी को एकदम बाहर खदेड़ दिया.
पीपल के पुराने पेड़ के नीचे बैठे हुए एकदम उसी की तरह लगते बुजुर्ग तसल्ली से सब बताते चले जाते हैं, जब तक कि हमारा परिचय नहीं जान लेते. मीडिया से आए हैं, ये समझते ही कहते हैं- बड़ी देर कर दी आप लोगों ने. अब तो सब निपट गया.
निपट गया मतलब!
मतलब-वतलब मैं क्या बताऊं. आप फलां (एक नाम लेते हुए) बंदे से बात कीजिए. वही सब जानता है. हमको कहने की मनाही है.
गांवभर घूम लिया लेकिन कोई कुछ भी कहने को राजी नहीं.
बाहर निकलते हुए साइट पर पहुंचे, जहां कंस्ट्रक्शन चल रहा है. एक ठेकेदार-नुमा शख्स कच्चे खंभे से सटा हुआ काम देखता हुआ.
पूछने पर बिना ना-नुकुर कहता है- हमको भैये-भैये बोलते हैं. लज्जित करते रहते हैं कि हम उनके पैसों से रोटी खा रहे हैं. मैं पूछता हूं, ये तो भारत है. एक देश. कोई भी बंदा कहीं जाकर काम कर सकता है. हमने उनसे पैसे लिए तो बदले में अपना पसीना भी तो दिया.
लेकिन भैया तो अच्छा शब्द है, आपको क्या इसी पर गुस्सा आता है!
कहने-कहने का फर्क है. इतनी उम्र हो गई, इतना तो समझते हैं. और बात बस इतनी नहीं! अगस्त में इन्होंने फरमान दे दिया कि सारे प्रवासी गांव खाली कर दें. मेरा बेटा सख्त बीमार. मूंज के खटोले पर पड़ा था. बहुत रोए-गिड़गिड़ाए कि हम पुराने लोग हैं, हमें तो बख्शो, लेकिन किसी ने नहीं सुनी. हारकर सामान खाली किया और दूसरे गांव में कमरा ले लिया. 2 हजार रुपये किराया. अब डर लगता है कि वहां भी यही न हो जाए.
आप तो सालों से यहां हैं, फिर अचानक क्या हुआ?
सालों से नहीं बहन जी, 30- 35 साल हो चुका. आधार कार्ड, वोटर कार्ड भी बना लिया था. पूरा परिवार यहीं बसा हुआ. किसी एक मुंडे ने गलती कर दी होगी तो सबको सजा दे दी.
यहां के लोग कहते हैं कि बाहरियों का चरित्र खराब है!
इतने सालों में हमारा तो चरित्र नहीं बिगड़ा. जिनसे शिकायत थी, अकेले उसे बाहर करते. सबकी बदनामी कर दी, जैसे ताक में बैठे हों. इज्जत नहीं है यहां. अब मन नहीं लगता.
बनते हुए मकान की तरफ इशारा करते हुए- जैसे ही ये मकान खत्म होगा, हम यूपी लौट जाएंगे. सूनी-पोली आवाज, जिसमें जड़ से टूटने की चटख सुनाई दे.
मनसुख के दुखों की पोटली में एक तिनका ये भी, कि दबे हुए रंग की वजह से उन्हें अलग माना जाता है. बातों ही बातों में कहते हैं- हम इनसे अलग दिखते हैं. सारा फेर इसी का है. इसलिए ही मैं उजली बहुएं लाया. बच्चों के रंग निखरेंगे तो क्या पता, उनका कल भी निखर जाए!
दूसरे गांव की तरफ निकलते हुए भारी बारिश होने लगी. हम बाहर ही बाहर चक्कर लगाते हुए लौट पड़ते हैं. रास्ते में कनाडा में पढ़ने और अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में नौकरी पाने के पोस्टर लगे हुए. ये वो ख्वाब हैं, जो पंजाब के बच्चों की अधमुंदी आंखों में जबरन डाले जा रहे हैं.
अगले रोज गांवों में घूमते हुए एक शख्स बेसाख्ता कह पड़ता है- हमें गुस्सा क्यों न आए जी, आप ही बताइए! आधा हिस्सा पाकिस्तान में चला गया. बचा-खुचा था, वो भी दो टुकड़ा हो गया. अब गांवों में प्रवासी बढ़ रहे हैं. विदेश जाकर सैटल हो चुके लोग अपने घर-खलिहान की देखरेख इन्हीं बाहरियों के जिम्मे छोड़ देते हैं. लोकल पॉलिटिक्स में भी यही लोग घुस रहे हैं. फिर एक रोज ऐसा आएगा कि वे भी राज्य में हिस्सा मांगेगे. इसी डर से गुस्सा आता है जी.
कैमरा पर यही बात कहने से इनकार करते हुए बोलते हैं- ये कोई अजूबी बात नहीं. सब जानते हैं. बस, मैंने कह दिया.
दूसरी सुबह हम दोबारा मुंदो संगतियां में हैं, जगमोहन सिंह से मिलने, जो प्रवासियों के मुद्दे पर बोल रहे हैं.
वे हमें साइट पर बुलाते हैं. ढेर सारे मजदूर काम पर लगे हुए. इनमें कई पंजाबी चेहरे-मोहरे वाली महिलाएं भी हैं. बहुत से यूपी-बिहार के-से लगते लोग भी.
उनकी तरफ इशारा करते हुए जगमोहन कहते हैं- आइए, किसी से भी पूछ लीजिए. कोई नाइंसाफी नहीं हुई है. मजदूर लगातार फावड़े चलाते या मिट्टी भरी तसलियां ढोते हुए. किसी में भी नए लोगों को देखने का चाव नहीं, या फिर जैसे पहले से इस बारे में खबर हो!
इशारे पर कई कामगार एक साथ पास सरक आते हैं. इनसे ही पूछकर मुझे 'तसल्ली' करनी थी.
कैमरा ऑन कहते ही एक कह उठता है- अब तो सब ठीक है. कुछ दिक्कत नहीं. पंजाबी लोग प्रवासियों को भाई जैसा मानते हैं.
अब तो यानी! पहले कोई दिक्कत थी क्या?
सवाल पूछते ही बीच में एक दूसरा चेहरा आ जाता है. चेहरे और आवाज में पकापन. टोकते हुए वो कहता है- इसे बोलना नहीं आता. आप मुझसे पूछिए. कहते-न-कहते माइक्रोफोन निकालकर अपनी शर्ट में टांक लेता है.
ये महेंद्र राम हैं. पूर्णिया जिले से आए महेंद्र कहते हैं- परिवार है ये हमारा. भाइयों की तरह रखा है इन लोगों ने. अब परिवार में कोई गलती करेगा तो भगाया ही तो जाएगा. वैसे भी वो हमारी तरफ के नहीं थे. नेपाली थे. कमरा लेकर रहने लगे. उनकी लेडीज गलत काम करती थीं. उन्हीं को हटाया.
मतलब आप लोग अब भी गांव के अंदर रह सकते हैं!
हिचकिचाता और कनखियों से देखता जवाब आता है- नहीं. गांव में क्यों, हम मोटर में रहते हैं.
मोटर पर क्यों, वो तो काफी छोटी जगह होती है!
अब जरूरत क्या है! परिवार लेकर हम यहां कभी आए ही नहीं. कोई बिहारी नहीं लाता. वो बीवी-बच्चे हमारे क्यों ठोकर खाएं. वहीं रहते हैं. जैसे ही हमारे पास कुछ रुपया होता है, वहां भेज देते हैं. वो भी चल रहे हैं, हम भी.
प्रवासियों की आबादी काफी कम दिख रही है, मुझे तो पता लगा कि यहां कई सौ लोग बसे हुए हैं?
हां. अभी कोई है नहीं. थोड़ा-बहुत आदमी ही होगा.
क्यों? बाकी लोग कहां गए?
झुर्रीदार चेहरा सुना-अनसुना करते हुए माइक्रोफोन निकालते हुए दूर चला जाता है. शायद उसकी तैयारी यहीं तक की हो.
जगमोहन पास ही थे. वे हमें अपने घर ले जाते हैं. चाय की मनुहार के बीच कहते हैं- यहां प्रवासियों के चलते लगातार क्राइम बढ़ रहा है. चोरियां होती हैं. गुरुद्वारे, मंदिर, मस्जिद किसी को नहीं छोड़ा. हमने कई बार थाने में शिकायत की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. इसके बाद ही हमें मता निकालना पड़ा.
किस तरह का मता?
वे गांव छोड़कर चले जाएं. बाहर रहें. खेतों में काम करें. हमें कोई दिक्कत नहीं. लेकिन भीतर नहीं आना है.
चोरियों के अलावा और किस तरह के क्राइम बढ़े हैं?
वे शराब पीकर आपस में मारपीट करते हैं. एक प्रवासी ने अपनी पत्नी पर हमला कर दिया. हमारा आदमी बीच-बचाव करने पहुंचा तो उसपर भी धारदार हथियार मार दिया. परेशानी बस इतनी नहीं. ये लोग निक्कर (निकर) पहनकर जानबूझकर घूमते रहते हैं. हमारी बहन-बेटियां बाहर जाती हैं. लोग गुरुद्वारे जाते हैं. सोचिए, नंग-धड़ंग आदमी देखकर उन्हें कैसा लगता होगा. आप गांव घूम लीजिए. हमारे यहां कोई ऐसे-वैसे कपड़ों में नहीं दिखेगा. हमारा कल्चर वैसा नहीं है.
प्रवासी तो आपके यहां बहुत सालों से रह रहे थे, फिर अभी ही ये समस्या क्यों आई?
तब बात अलग थी जी. वे खेतों में मोटर पर रहते. तीन-चार सालों से इन्होंने गांवों में एंट्री कर ली है. हमारे कई भाइयों ने खुद ही इन्हें मकान की देखभाल के लिए रख लिया. अब इनके पास गांव से सारे भेद हैं. इनको पता है कि कब गुरुद्वारा बिल्कुल सूना रहता है. मौका पाकर घुस जाते हैं.
एक परेशानी और भी है- बात काटते हुए साथ बैठा एक शख्स कहता है- हमारे मुंडे पहले कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जा रहे थे. जब से उन लोगों ने सख्ती लगाई , बच्चे यहीं काम खोजने लगे. लेकिन काम मिले कैसे! दूसरे स्टेट से आए लोग उसे भी हथिया रहे हैं. वे आधी कीमत पर काम करने को राजी हो जाते हैं. पंजाबी मुंडों को सात-आठ सौ से कम दिहाड़ी नहीं चाहिए. उनकी जरूरतें भी ज्यादा हैं.
जरूरतें कैसे ज्यादा हुईं!
प्रवासी यहां मोटरों पर बसे हुए हैं. वहां न कमरे का किराया देना पड़ता है, न बिजली-पानी का खर्च. ऊपर से सारी सरकारी सूरतें (सहूलियत) वही ले रहे हैं. उनके बच्चे सरकारी स्कूल जाते हैं. वे सरकारी अस्पताल जाते हैं. आप जाकर देख लें, कोई पंजाबी परिवार सरकारी जगहों पर इलाज लेता नहीं दिखता. फिर खर्चे तो होंगे ही. गुस्सा आते-आते कभी न कभी तो घड़ा भरता है.
पंजाबियों और प्रवासियों के बीच शक की बारीक लकीर, गहरी खाई में बदलती हुई.
जगमोहन बोलते हैं- ‘प्रवासी और हम दोनों ही यहां हैं, लेकिन चिट्टा एक ही समुदाय को कैसे खा रहा है! हर साल कई पंजाबी मुंडे नशे से खत्म हो जाते हैं. कभी किसी प्रवासी के बारे में ये खबर नहीं आई. हमें जान-बूझकर बर्बाद किया जा रहा है. फिर चाहे बाहरियों को घुसाकर हो, या चिट्ठा देकर.’ हावभाव में कंटीले पौधे का गुस्सा.
जाते हुए गांव की बुजुर्ग औरतों से भी हमारी बातचीत हुई. मुझे पंजाबी नहीं आती, उन्हें हिंदी. मैं कसक से भरकर कहती हूं- अगली बार सवाल-जवाब लायक सीखकर आऊंगी. एक स्थानीय मित्र अनुवाद करती हैं. हंसते हुए सबसे उम्रदराज महिला कहती है- अभी ही सुन जाओ, अगली बार आओगी तो हम कहां होंगे!
‘उनकी जनानियां बेकार थीं. कल्ले-कल्ले घूमतीं. सिर उघड़ा रहता. न देखने का लिहाज, न चलने का शऊर. हमारे मुंडे भी गांव में रहते हैं. डर लगता था. फिर इनके आदमी भी ऐसे चुप्पे, जैसे चौकीदार की नींद! एक हाथ करें, दूसरे को भनक न दें. एक के बाद एक कई लड़कियां भगा डालीं.’
ठीक यही आरोप पंचायत सदस्य चरणजीत सिंह भी लगाते हैं. ‘इनका तरीका अलग है. न कोई पक्का आईडी होता है, न कोई भरोसा. हमारी लड़कियों को भगाकर ले गए. आज तक हम उन्हें ट्रैक नहीं कर सके.’
किस उम्र की थीं लड़कियां?
नाबालिग थीं सब की सब. गायब हो गईं. अब उनके परिवार भी डरे हुए हैं. थाने में रिपोर्ट तो कर दी, लेकिन ज्यादा जोर नहीं लगा पा रहे. डर बढ़ रहा था तो ग्राम पंचायत ने फैसला ले लिया.
प्रवासियों को गांव से बाहर रखने का मता आपके यहां ही पास हुआ या दूसरे गांव भी हैं?
कई गांव हैं. लगभग सब परेशान, लेकिन प्रशासन हमें दबा रहा है. मुझे भी धमकीभरी कॉल आई थी कि आप लोग ऐसा मत कीजिए वरना हम आपको उठा लेंगे. मैंने कहा कि ये पंचायत का फैसला है. उठाओगे तो चार-पांच सौ बंदे साथ जाएंगे. सबके दस्तखत हैं.
गांव से बाहर कई मोटरें पड़ीं.
खेतों के बीच अकेला कमरा. आधा पलस्तर, आधी ईंट से बने कमरे में सारी रिजेक्टेड चीजें जमा थीं. टूटे हुए सोफे पर चीकट कवर. लोहे के संकरे पलंग पर पुराना गद्दा. रस्सी पर सूखते आधे-अधूरे कपड़े और बेमेल बर्तन-बासन. कोई अलमारी, कोई शीशा, या कोई ऐसी तस्वीर नहीं जो कमरे में रंग भर जाए.
एक मोटर पर टिमिर-टिमिर करते बल्ब के साथ एक फैन भी दिखता है. साथ में सीसीटीवी लगा हुआ. मैं टोह लेती हूं- इतना कुछ दे रखा है इन लोगों ने आपको. बिजली बिल तक नहीं लेते!
तुरंत एक बगावती आवाज आती है- बिल क्यों नहीं लेगें. एक का चार वसूलते हैं. कहिए तो आपको रसीद दिखा दें. मैं हां कहूं, इसके पहले ही रोटी बना रहा शख्स कुछ इशारा करता है और बुलंद आवाज एकदम से चुप लगा जाती है. इसके बाद लाख कुरेदने पर भी उन्होंने न रसीद दिखाई, न कोई बात की.
हमारा अगला पड़ाव था जंडपुर गांव. यही वो इलाका है, जिसने 11 पॉइंट्स की तख्तियां लगवाई थीं. गांव पहुंचने के रास्ते में धर्म परिवर्तन के कई मंजर दिखे.
एक जगह काफी भीड़ थी. ताकझांक पर पता लगा कि यहां अर्जी लगाने, आशीर्वाद लेने पर विदेशों का वीजा तपाक से मिल जाता है. करीब एक किलोमीटर तक दीवारों पर पोलैंड, कनाडा और अमेरिका के वीजा की तख्तियां लगी हुईं. साथ ही प्रोफेट बजिंदर सिंह- चर्च ऑफ ग्लोरी एंड विज्डम को शुक्रिया जताते लोगों की तस्वीरें.
कनाडियन सपने बोते युवाओं के लिए ये आसान रास्ता है. वे धर्म बदलेंगे, केश हटाएंगे और विदेश जाकर बस जाएंगे. कन्वर्जन कराने वाली एजेंसियां खुद इसमें उनकी मदद करती हैं. यहां ऐसा धड़ल्ले से हो रहा है. साथ चल रही लोकल मददगार बताती हैं.
जंडपुर पहुंचते ही वहां के म्यूनिसिपल काउंसलर गोविंदर सिंह चीमा से हमारी मुलाकात हुई.
अपने मोबाइल पर ही वे 11 पाइंट्स पढ़कर सुनाते हुए बोलते हैं- लोग क्रिमिनल वारदात करके यहां आ जाते हैं. हमें पता ही नहीं होता. तो हमने ये सारे रूल्स बाहर से आए किराएदारों के लिए बनाए हैं.
मैं गौर करती हूं कि प्रवासी शब्द यहां आकर किराएदार में बदल चुका है. पलटकर पूछ लेती हूं- लेकिन आपके यहां तो प्रवासियों के साथ कई मुश्किलें आई थीं!
कैसी मुश्किलें! मैंने कहा न, ये किराएदारों के लिए हैं. वे एक आते हैं और एक कमरा लेकर दस जने बस जाते हैं. कई मामले हो चुके. कोई हत्या करके यहां रह रहा था. कोई नाम और मजहब छिपाकर आ चुका था. आते हैं, फिर लड़कियों को फुसलाकर ले जाते हैं. इसी को रोकने के लिए हमने रूल्स बना दिए.
लेकिन किराएदार तो आपके हिंदी बोलते हैं और पोस्टर पंजाबी में हैं!
हिंदी में भी छपने गए हैं. आते ही सब जगह लग जाएंगे.
पंजाबी वाले पोस्टर कहां लगे हैं, मैं देख सकती हूं?
अभी तो हमने सारे हटवा दिए. उनमें कुछ अलग नहीं था. वही अब हिंदी में आएगा. वैसे कुछ अलग नहीं था. यही गंदी आदतें बदलने पर था. खुद गंदे रहेंगे और यहां भी बीमारी फैलाएंगे.
पंजाबी में छपे पॉइंट्स वॉट्सएप पर हमसे शेयर भी किए गए, लेकिन ये पॉइंट पुराने पोस्टर से काफी संतुलित दिखे. बदली हुई भाषा. प्रवासी को हटाकर हर जगह किराएदार किया हुआ. कई पॉइंट्स भी बदले हुए...
पंजाबी बनाम प्रवासी का ये मामला कुछ ही दिनों में इतना गरमाया कि पंजाब हाई कोर्ट तक पहुंच गया. केस को लेकर हमने मोहाली वालों की तरफ के वकील से भी बात की.
वकील इमान सिंह कहते हैं- किसी ने पिटीशन डाल दी थी कि माइग्रेंट्स के साथ फर्क हो रहा है. लेकिन अदालत ने पाया कि ऐसा कुछ नहीं है. हम खुद गांववालों की तरफ से सारे सबूत लेकर गए. लेडीज ने खुद बताया कि वे लोग उन्हें मॉलेस्ट करते हैं. थाने में कई शिकायतें भी हैं. उसकी कॉपी भी हमने सौंपी. सब देखने के बाद जज साहब ने कहा कि फैसला गांव के लोगों को ही करना होगा. वैसे भी प्रवासियों के लिए सरकार ने एक कमेटी भी बना रखी है. उन्हें कुछ गलत लगे तो वे भी शिकायत कर सकते हैं.
मोहाली छोड़ते हुए हम कई गांवों, कई मोटरों से गुजरे. कहीं भी कोई प्रवासी महिला नहीं दिखी.
क्यों?
इसका जवाब हमें चंडीगढ़ में मिलता है. चिप्स-पानी-पान की छोटी-सी दुकान चला रहे मनोज कहते हैं- कई बार मैंने भी हिम्मत की. घरवाली-बच्चों को लेकर आया. लेकिन जो थप्पड़ हम रोज खाते हैं, वो उन्हें सहता नहीं देख सकते. हारकर वापस भेज दिया.
(इंटरव्यू कोऑर्डिनेशन: अनुराधा शुक्ला)