पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पार्टी दफ्तर आने पर तस्वीर में चार चेहरे खासतौर पर नजर आते थे. वही चेहरे उनकी पार्टी संगठन में सबसे अहम सलाहकार माने गए. जी हां, हम बात कर रहे हैं उस वक्त सोनिया के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल, कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा, संगठन महासचिव जनार्दन द्विवेदी और महासचिव दिग्विजय सिंह की. मगर सोनिया के अध्यक्ष पद से हटने के बाद संगठन महासचिव पद से पहले जनार्दन द्विवेदी और अब महासचिव पद से दिग्विजय सिंह की विदाई काफी कुछ बयान करती है.
अहमद अब कितने अहम
पार्टी की कमान संभालने के बाद राहुल गांधी की कांग्रेस बदली-बदली सी नजर आने लगी है. सोनिया अब यूपीए की अध्यक्ष और पार्टी के संसदीय दल की नेता हैं. इसलिए उनके राजनैतिक सचिव की सक्रियता उनकी सीमित सक्रियता पर निर्भर है. हालांकि विपक्षी एकता की राजनीति के दौर में अहमद की भूमिका अब भी अहम है, लेकिन रोजमर्रा के राजनैतिक फैसलों में अब उनकी भूमिका कम ही बची है. हां, बड़े फैसलों में राहुल उनसे सलाह ले लेते हैं.
जर्नादन की विदाई
इसके बाद बात करें तो संगठन महासचिव के तौर पर अर्से से काम कर रहे जनार्दन द्विवेदी हाल में खुद ही पद छोड़ चुके हैं. इसके बाद राहुल ने उनकी इच्छा मानते हुए अशोक गहलोत को नियुक्त किया. वैसे माना ये भी जाता है कि कई राजनैतिक मसलों पर द्विवेदी यानी पंडित जी (कांग्रेस में इसी नाम से जाने जाते हैं) की सोच राहुल से नहीं मिलती थी.
इसके बाद आते हैं उम्र के 90 पड़ाव पार कर चुके मोतीलाल वोरा. इनकी खासियत है कि उन्हें किसी गुट का नहीं माना जाता और वह गांधी परिवार के येस मैन हैं. वैसे कहा जाता है कि वोरा सिर्फ चेहरा हैं, दस्तखत उनके होते हैं, लेकिन पर्दे के पीछे से कमान अहमद पटेल के हाथ में रहती है.
नए युग की शुरुआत
कांग्रेस संगठन में आहिस्ता-आहिस्ता राहुल ने काफी बदलाव कर दिए हैं. कई महासचिव बदले जा चुके हैं, कई राज्यों के प्रभारी बदले जा चुके हैं, कई के बदले जाने हैं. लेकिन जनार्दन के बाद कांग्रेस के केंद्रीय संगठन में सबसे ताकतवर महासचिव दिग्विजय सिंह की विदाई कांग्रेस में राहुल युग पर मुहर लगाती है.
राहुल के चाणक्य
दिग्विजय सबसे पहले सोनिया से राहुल को कमान देने की वकालत करते आए हैं. एक वक्त दिग्विजय को राहुल का चाणक्य भी कहा गया. उस दौरान दिग्विजय यूपी के प्रभारी रहे और 2009 लोकसभा चुनाव में पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया. इसके बाद विधानसभा चुनाव 2012 में राहुल और दिग्विजय की जोड़ी सर चढ़कर बोली.
आलम ये था कि पार्टी में दिग्विजय को सियासी दुश्मनों से भिड़ने के लिए नंबर वन माना जाने लगा. मगर कई विधानसभा चुनावों में पराजय और फिर दिग्विजय के बयान, अल्पसंख्यों के प्रति उनकी झुकाव वाली राजनीति के चलते राहुल ने उनसे दूरी बना ली. एक वक़्त वह था जब कहा जाता था कि दिग्विजय जो किसी मुद्दे पर लाइन लेते हैं, वह पार्टी की लाइन हो जाती है. मगर 2012 के बाद सब बदलता गया.
दिग्विजय ने भांपा समय
मगर दिग्विजय सियासत के खिलाड़ी ठहरे. भविष्य भांप खुद 6 महीने की नर्मदा यात्रा पर निकले, बदली छवि के साथ लौटे. मध्य प्रदेश में कमलनाथ को अध्यक्ष बनवाकर खुद समन्वय की ज़िम्मेदारी मांगी और महासचिव पद से हटने की इच्छा जता दी. फिर क्या था, राहुल ने उनकी सुन ली.
उत्तर-पूर्व के साथ ही असम, बिहार और बंगाल के प्रभारी रहे महासचिव सीपी जोशी के पर भी राहुल ने खासे कतर दिए. बिहार और बंगाल उनसे लेकर नई नियुक्ति कर दी. सूत्रों की मानें तो आगे भी उनका कद और घटेगा.
नौजवानों को मौका
हालांकि, राहुल के करीबियों का कहना है कि वह अनुभव और नौजवानों को बराबर से इस्तेमाल करना चाहते हैं. इसीलिए दिग्विजय की जगह वरिष्ठ नेता केरल के पूर्व सीएम ओम्मन चांडी को ज़िम्मेदारी मिली है, वहीं नौजवान सांसद गौरव गोगोई को सीपी जोशी की जगह बंगाल का प्रभार मिला है.
बदली बदली कांग्रेस
कुल मिलाकर राहुल की सियासी दहलीज पर सवाल वरिष्ठ और नौजवान नेताओं का नहीं है, उम्र का नहीं है बल्कि सवाल कांग्रेस अध्यक्ष की पसंद और जवाबदेही का है. इसी आधार पर वह बदलाव कर रहे हैं. राहुल के फैसले कितने सही कितने गलत, इसका फैसला तो आने वाले वक़्त के चुनावी नतीजे बताएंगे, लेकिन यह तय है कि सोनिया वाली कांग्रेस अब राहुल की कांग्रेस दिख ही नहीं रही बल्कि हो भी गई है.