क्या! राहुल गांधी अप्रैल में कांग्रेस अध्यक्ष बनाए जा रहे हैं? ...पक्का? बताइए बनेंगे या नहीं? अब राहुल जी की तरह असमंजस में मत रखिए. खैर, चलिए मान लेते हैं कि वे अध्यक्ष बनने जा रहे हैं. तो वे करेंगे क्या? जिस पार्टी के वे अध्यक्ष बनने जा रहे हैं, उसमें अब कुछ 'वरिष्ठ' नेता ही बचे हैं. कार्यकर्ता तो कभी के चले गए. तो राहुल गांधी को मिलने वाली इस नई जिम्मेदारी के मायने क्या हैं-
1. पार्टी के चुनाव कराना है, क्या सख्त इलेक्शन कमिश्नर बन पाएंगे?
2004 में पॉलिटिक्स ज्वाइन करने वाले राहुल पार्टी में हर स्तर पर चुनाव कराना चाहते हैं. ताकि नई लीडरशिप आगे आए. युवक कांग्रेस में तो वे ऐसा कर पाए, लेकिन उसका असर इसलिए दिखाई नहीं दिया क्योंकि कांग्रेस पार्टी की लीडरशिप पुराने ढांचे पर ही काम करती रही. राहुल कांग्रेस अध्यक्ष बनते हैं तो पहला काम यही होगा कि वे पूरे देश में कांग्रेस के चुनाव कराएं. एकदम निष्पक्ष. हालांकि, ये भी आम चुनाव की तरह ही होंगे. सबसे पुरानी पार्टी में नई जान फूंकने की उम्मीद से.
2. क्या पर्यटन बंद कर पाएंगे?
राहुल गांधी के अब तक के पॉलिटिकल करियर में गंभीरता की कमी नजर आती है, मानो कि वे पार्ट टाइम पॉलिटिक्स के लिए यहां आए हों. जैसे कि बॉलीवुड सितारे, खिलाडि़यों को संसद में आते और उसी शाम एक टीवी शो होस्ट करते हम देखते हैं. राहुल का भी पता नहीं चलता कि वे कब संसद आते हैं और कब सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं. अब उन्हें पर्यटन बंद करके फुलटाइमर बनना ही नहीं, दिखना भी होगा.
3. सेनापति की तरह आगे आ पाएंगे?
अब तक दिग्विजय सिंह, कपिल सिब्बल, मणिशंकर अय्यर और मनीष तिवारी जैसे नेता ही पार्टी का चेहरा बने हुए थे. कांग्रेस की खबरें इन्हीं के इर्द-गिर्द बनना शुरू होती थीं. तब ये समझा जा सकता था कि सोनिया गांधी मीडिया से बातचीत में उतनी सहज नहीं हैं. लेकिन राहुल के साथ ऐसा नहीं है. वे हर मुद्दे पर अपनी बात रख सकते हैं. यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो पार्टी की स्थिति सीपीआई (मार्क्सवादी) जैसी हो जाएगी. वहां भी पिछले दस साल से प्रकाश करात पर्दे के पीछे से ही पार्टी चला रहे हैं. बंगाल और केरल जैसे किले गंवा चुके हैं.
4. 'वरिष्ठ' नेताओं का आभामंडल तोड़ पाएंगे?
राहुल गांधी की उदासीनता का एक कारण पार्टी का परंपरागत ढांचा है और उसकी वैसी ही वर्किंग स्टाइल है. वे उसमें आमूल-चूल बदलाव चाहते हैं. इन बदलावों के लिए वे कई बार ड्राफ्ट बना चुके हैं. लेकिन लागू नहीं कर पाए, क्योंकि पार्टी की सर्वोच्च सत्ता भले उनकी मां के हाथ हो. उस पर प्रभाव वरिष्ठ नेताओं का ही रहा. हर फैसले, हर रणनीति पर इसका असर दिखा. ये कुनबा इतना ताकतवर है कि चुनाव से जुड़ी हर रणनीति और टिकट के फैसले इनकी ही मर्जी से होते रहे हैं. राहुल चाहेंगे कि यह सब अब बंद हो.
5. अपने नेताओं से परफॉर्मेंस पर सवाल कर पाएंगे?
कांग्रेस की एक अजीब स्थिति है. हर राज्य में कुछ नेता ऐसे हैं कि उन्हीं से कांग्रेस चलती है. वे ही नेता बनाते हैं, हटाते हैं. वे ही टिकट देते हैं. जब पार्टी हारती है तो वे ही जांच करते हैं और हाईकमान को रिपोर्ट भेजते हैं. फिर अगले चुनाव में उन्हीं के हाथ में कमान होती है. अब दम राहुल गांधी को दिखाना होगा. क्या वे पदासीन नेताओं से सवाल कर सकेंगे कि उन्होंने क्या काम किया. क्या वे तटस्थ रूप से फैसला दे पाएंगे कि नेताओं को अगली जिम्मेदारी उनके रिपोर्ट कार्ड के आधार पर ही दी जाएगी. नाम और कद के आधार पर नहीं.
कांग्रेस पार्टी अभी शून्य पर खड़ी है. ये दिल्ली के चुनाव परिणाम नहीं, बल्कि देश में उसकी राजनीतिक हैसियत है. सत्ता के किसी भी ताने-बाने में उसका जिक्र नहीं हो रहा है. विपक्ष में भी उसकी स्थिति किसी बैक-बेंचर की तरह है. तो राहुल का काम इस रूप में आसान है कि उन्हें पार्टी के अलावा कहीं और ध्यान नहीं लगाना है. और मुश्किल यह है कि जब पार्टी ऐसे रसातल में है तो उसके संगठन में कोई दिलचस्पी क्यों लेगा. पुराने मठाधीश तो प्रचार करेंगे कि राहुल जी अच्छे नेता हैं, लेकिन उनकी योजना व्यावहारिक नहीं है. कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी के पास मौका होगा, कि वे पार्टी चुनाव कराने के दौरान ही इन्हें ठिकाने लगाते जाएं.