क्या कांग्रेस पस्ती के दौर को मीडिया के हो-हल्ले से दूर खुद को अपने पांव पर खड़े करने की मुहिम के तौर पर इस्तेमाल कर रही है? शायद हां. कांग्रेस के एक महासचिव की मानें तो सोनिया गांधी ने तय कर लिया है कि राहुल ही कांग्रेस के खेवनहार हैं. सोनिया के चेहरे पर इस बात की थोड़ी शिकन जरूर है कि राहुल की लोकप्रियता में कमी आ रही है, लेकिन वे उन्हें खुला हाथ देने से पीछे नहीं हटने वालीं. सोनिया गांधी ने मन ही मन तय कर लिया है कि पिछली पीढ़ी गद्दी छोड़े. इसी इशारे को भांपकर उनके सलाहकार अहमद पटेल आजकल पूर्वोत्तर राज्यों के इतिहास पर शोध करने में ज्यादा वक्त बिता रहे हैं.
दूसरी ओर, पी. चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे और ए.के. एंटनी जैसे नेताओं ने भी खुद को राजनीतिक आत्मनिर्वासन के लिए मानसिक रूप से तैयार कर लिया है. दिगिवजय सिंह और जनार्दन द्विवेदी मीडिया के जरिए जरूर थोड़ा विरोध करना चाह रहे हैं, लेकिन कांग्रेस में इस तरह के विरोध नक्कार खाने में तूती की आवाज जैसे ही हैं. तो ये सब जब हट जाएंगे तो होगा क्या? होगा वह जो राहुल चाहेंगे और राहुल अपनी रणनीति बदलने वाले नहीं हैं. वे इस बात पर कायम हैं कि जमीनी स्तर से पार्टी के संगठन को मजबूत किया जाए. सारी प्रदेश कार्यकारिणियों में युवा रक्त का संचार हो. इसके लिए राहुल जो करेंगे वह कुछ ऐसा है.
पुरानी कार्यशैली पर काम करेंगे राहुल
संकेत है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष आम चुनावों में करारी हार के बावजूद अपनी कार्यशैली बदलने वाले नहीं हैं. यह बात इसी से पता चलती है कि साल के अंत तक कांग्रेस की प्रदेश समितियों को ब्लॉक स्तर पर चुनाव कराने के लिए वे पत्र भेज चुके हैं. राहुल के एक सहयोगी बताते हैं, ''राजनैतिक मजबूरियों की वजह से पहले उनके कई फैसलों में फेरबदल कर दिया जाता था. अब किसी तरह का समझौता नहीं होगा.” और पार्टी हलकों में व्यापक आलोचना के बावजूद कनिष्क सिंह, मोहन गोपाल, सचिन राव और कौशल विद्यार्थी का थिंक टैंक बरकरार रहने वाला है.
राज्यों में नेतृत्व का नया ढांचा
प्रदेशों में नेतृत्व का एक नया ढांचा बनाया जाएगा, जो जूनियर कार्यकर्ताओं से मिलने वाली जानकारियों पर आधारित होगा. राजस्थान में सचिन पायलट की सफलता से उत्साहित होकर अब कई राज्यों में युवा नेताओं को प्रदेश कांग्रेस समिति का अध्यक्ष बनाया जाएगा. राहुल के एक सहयोगी के मुताबिक, राज्यों में साफ-सुथरी छवि वाले युवा नेता तैयार करने की योजना बनाई जा रही है. यह बात सभी जानते हैं कि राहुल गठबंधन की राजनीति पसंद नहीं करते हैं. उनका मानना है कि पार्टी को यूपीए की सहयोगी पार्टियों के गलत और अवांछित कार्यों की वजह से भी लोकसभा चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा. महाराष्ट्र चुनावों के पहले शरद पवार की एनसीपी ने जब गठबंधन तोडऩे की धमकी दी तो उन्होंने सोनिया के विरोध के बावजूद बातचीत करने से इनकार कर दिया. माना जा रहा है कि अगले साल पार्टी बिहार समेत सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों में अकेले ही चुनाव लड़ सकती है.
सोशल नेटवर्किंग की ताकत
लोकसभा चुनावों की हार से कांग्रेस ने जो सबसे बड़ा सबक लिया है, वह है सोशल मीडिया की ताकत, जिसका इस्तेमाल बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े असरदार ढंग से किया था. कांग्रेस महासचिव अजय माकन के नेतृत्व में कांग्रेस की संचार टीम ने अब ऐसे शोधकर्ताओं की टीम नियुक्ïत की है, जो हर रोज दोपहर बाद 3 बजे और शाम 8 बजे बैठकें आयोजित करती है. वे पार्टी प्रवक्ताओं और संसद के दोनों सदनों में पार्टी के नेता, लोकसभा में मल्लिकार्जुन खडग़े और राज्यसभा में गुलाम नबी आजाद जैसे नेताओं के लिए ''मुकाबले का मसाला” तैयार करती है ताकि वे एनडीए सरकार से लोहा ले सकें.
हालांकि कांग्रेस में दो तरह के लोग हैं, एक वे जिन्हें राहुल के ये कदम दिशाहीन लग रहे हैं, वहीं दूसरे ऐसे भी नेता हैं जो मानते हैं कि राहुल में बदलाव आ रहे हैं और वे काफी गर्मजोशी में हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री और राजस्थान कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट भी राहुल की धीमी पर मजबूत योजना का समर्थन करते हैं. पायलट कहते हैं, ''पिछले चार महीने में वे राज्य और जिला स्तर के हजारों पार्टी कार्यकर्ताओं से मिल चुके हैं. यही वे लोग हैं, जो चुनावों में जीत दिलाते हैं.” राहुल की अगली बड़ी चुनौती नेताओं और कार्यकर्ताओं को साथ लाने और उन्हें एक ताकत बनाने की है. रास्ता भले लंबा और मुश्किल नजर आता है, लेकिन इसके लिए कांग्रेस के पास पर्याप्त समय है.