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मिस्टर राहुल गांधी, ये क्या हो गया इंटरव्यू के फेर में!

राहुल गांधी की आज की हालत देखकर एक कहावत याद आ रही है. चौबे गए थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौट आए. अब डर यह है कि दुबे बनकर लौट तो आए हैं, कहीं शुबे न बन जाएं अब. नहीं-नहीं शुबे कोई शब्द नहीं होता. दुबे को दो से जोड़ा गया. तो मैंने दो हटाकर शून्य जोड़ दिया. बहरहाल, सियासत में यूं लेने के देने क्यों पड़ गए राहुल को, इस पर कुछ गुफ्तगू करते हैं.

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राहुल गांधी
राहुल गांधी

राहुल गांधी की आज की हालत देखकर एक कहावत याद आ रही है. चौबे गए थे छब्बे बनने, दुबे बनकर लौट आए. अब डर यह है कि दुबे बनकर लौट तो आए हैं, कहीं शुबे न बन जाएं अब. नहीं-नहीं शुबे कोई शब्द नहीं होता. दुबे को दो से जोड़ा गया. तो मैंने दो हटाकर शून्य जोड़ दिया. बहरहाल, सियासत में यूं लेने के देने क्यों पड़ गए राहुल को, इस पर कुछ गुफ्तगू करते हैं.

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मायावती, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह और इधर कुछ वक्त से नरेंद्र मोदी भी. ये लोग इंटरव्यू देने से बचते रहे हैं. मायावती ने पिछले दिनों लखनऊ रैली में खुद इस बात की तसदीक की. सफाई भी दी कि मीडिया में अब भी मनुवादी लोग हैं. कहो कुछ, छापते कुछ हैं, फिर देते रहो सफाई, मगर पब्लिक तक बात नहीं पहुंचती. तो ये है बीएसपी सुप्रीमो की वजह. न तो वह इंटरव्यू देती हैं. न प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल लेती हैं. इतना ही नहीं, रैली और पीसी में भाषण भी लिखा हुआ पढ़ती हैं. मायावती को दिक्कत नहीं है. उनका काडर बंधा हुआ है और उस तक संदेश पहुंच जाता है.

मगर क्या राहुल गांधी भी अपने लिए यही बात कह सकते हैं. क्या कांग्रेस का कोई काडर बचा हुआ है. मगर शुरू से शुरू करें तो बेहतर है. मनमोहन सिंह जब पीएम नहीं थे, तब उनके इंटरव्यू में मुख्यधारा की रुचि नहीं थी. जब पीएम बने, तो यह सोचकर बचते रहे कि कहीं उनकी अराजनीतिक सीईओ छवि को बट्टा न लग जाए. क्योंकि सवाल तो सियासी ही पूछे जाएंगे. मगर फिर मनमोहन ने एक इंटरव्यू दिया. ये वक्त था इंडो-यूएस न्यूक्लियर डील का. लेफ्ट के सपोर्ट से यूपीए-1 चल रही थी और करात बाबू अमेरिका विरोध पर अड़े हुए थे. तब मनमोहन ने भी मुलायम के भरोसे सख्त होने का मन बनाया. एक दिन एक अंग्रेजी अखबार की वरिष्ठ पत्रकार मानिनी चटर्जी से कहा कि अरसा हुआ गुफ्तगू किए. आइए चाय पर बतियाएं. और फिर जो बातें कीं, वे छपीं तो सीधी गर्मी कोलकाता में लालगुफा में बैठे कॉमरेडों तक पहुंची. मनमोहन का हित सध गया. वह इसके बाद भी बोले, मगर संसद में या फिर दूसरे सरकारी मंचों पर. प्रेस कॉन्फ्रेंस के नाम पर इस साल की शुरुआत में नजर आए. चुप्पी के सवाल पर मुस्कुराए और बोले, कांग्रेस के मंच पर बोलता हूं और उत्तेजित भी हुए तो बस मोदी पर. ठीक भी है, अब देश उन्हें कितना सुनना चाहता है, सब जानते हैं.

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मगर गांधी परिवार, वह तो यह दावा करता है कि उसने देश की आवाज सुनी है. उसकी फिक्र की है. राहुल गांधी के ही शब्दों में कहें तो 3 हजार साल पुरानी है ये आवाज. अशोक और अकबर की है ये आवाज. तो फिर सोनिया गांधी कभी देश के सामने क्यों नहीं आईं. कह सकते हैं कि 2004 तक रैलियों के जरिए संवाद करती रहीं और उसके बाद भी वह किसी सरकारी पद पर नहीं थीं. तो जवाबदेही सीधे सीधे नहीं थी. मगर अब ये दांव कितने चल पा रहे हैं. पब्लिक साफ सीधी बात चाहती है. जो रायसीना हिल पर काबिज हैं, उनसे जवाब चाहती है. चलिए एक और तर्क सही. सोनिया जी की सेहत अब ठीक नहीं रहती. तो फिर सुई टिकती है राहुल गांधी पर.

राहुल गांधी, जिन्होंने जब शुरुआत में ये कहा था कि हां, ये सच है कि मैं गांधी परिवार के चलते यहां तक आसानी से आ गया, मगर अब मैं इस सिस्टम को बदलना चाहता हूं. तो लगा था कि शायद अब कांग्रेस बदले. यहां ओल्ड गार्ड का वर्चस्व टूटे. मगर अब इतने बरसों बाद बस वही गाना याद आता है. कसमे वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या.

मगर 2014 के ऐन पहले टीम राहुल को समझ आ गया कि इंटरव्यू जरूरी है. कि सिर्फ प्रेस क्लब की प्रेस कॉन्फ्रेंस में अध्यादेश फाड़ने से या फिर रैलियों में कुर्ते की बांह चढ़ा भाषण देने से या सत्ता जहर है ऐसा रोती हुई मां ने बोला, जैसे जुमले उछालने भर से काम नहीं चलेगा. फिर इंटरव्यू का सिलसिला शुरू हुआ. पहले इंटरव्यू के लिए चुना गया हिंदी अखबार दैनिक भास्कर को. जिसकी उत्तर प्रदेश के अलावा सभी हिंदी भाषी राज्यों के अलावा गुजरात और महाराष्ट्र में भी व्यापक पहुंच है. मगर इस इंटरव्यू का लब्बोलुआब क्या निकला. यही कि पार्टी जिम्मेदारी देगी (पढ़ें पीएम की) तो मैं तैयार हूं. यहां असहज करने वाले बहुत ज्यादा सवाल नहीं थे और जो थे भी, उनके जवाब बच निकलने वाले थे. फिर भी एजेंडा कुछ हद तक सेट हुआ. अगले दिन चहुं ओर इस इंटरव्यू की चर्चा रही.

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फिर आया दूसरा इंटरव्यू. इस बार चुना गया ऐसे ग्रुप को, जिसका अंग्रेजी अखबार सर्कुलेशन के लिहाज से देश में अव्वल है. जिसका अंग्रेजी न्यूज चैनल प्राइम टाइम का एजेंडा सेट करने का दावा करता है. और इस इंटरव्यू के दौरान क्या हुआ. उन सभी बेसिक सवालों के, जिनसे कांग्रेस के इस कुंवर को जूझना ही होगा, जवाब पूछे गए. मगर हासिल क्या रहा. इसे समझने के लिए विद्वान होने की जरूरत नहीं. बस एक नजर इंटरव्यू के बाद ट्विटर पर चले जोक्स या फॉरवर्ड होकर व्हाट्सएप पर आए एसएमएस पढ़ने से लग जाता है. सिस्टम शब्द कितनी बार बोला गया. इस पर खूब चटखारे लेकर चर्चा हुई. हर सवाल के जवाब में आरटीआई, वुमन इंपावरमेंट, लोकसभा में पेंडिंग छह बिलों पर बात हुई.

हुआ और भी बहुत कुछ. मसलन दंगों के मसले पर मोदी को घेरने के फेर में अब राहुल खुद ही घिर गए. मोदी की मीडिया स्क्रूटनी तो 12 बरसों से जारी है. और कल यूपीए के साझीदार एनसीपी के नेता ने कह भी दिया, अब छोड़िए भी. कोर्ट ने बरी कर दिया और आप वही राग अलाप रहे हैं. पर 2002 के पहले भी देश में दंगे हुए थे. 1984 में. जब राहुल के पापा राजीव पीएम थे. राहुल ने कहा, उस वक्त स्टेट ने एक्शन लिया. बीजेपी ने तथ्यों की झड़ी लगाते हुए आरोप लगाया कि सरकार सुस्त थी. रही-सही कसर राहुल के इंटरव्यू के उस बोल वचन ने पूरी कर दी, जिसमें उन्होंने कथित साफगोई दिखाते हुए कहा था कि हां, मुझे लगता है कि कुछ कांग्रेसी दंगों में शामिल थे. अब सिख सड़कों पर हैं. चीखकर कह रहे हैं कि राहुल और सोनिया गांधी सीबीआई या कोर्ट के सामने जाएं और बताएं कि वे कौन से कांग्रेसी हैं, जो दंगों में शामिल थे. साफगोई भारी पड़ गई.

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तो कुल जमा नतीजा ये निकला कि दिया था इंटरव्यू कि चमकेगी इमेज. मगर यहां तो ईख के चक्कर में ईंधन ही फुंक गया और मिला सिर्फ धुंआ. अब आलम ये है कि पब्लिक डिस्कस कर रही है कि राहुल कैसे 'नरभसा' रहे थे, जबकि पार्टी चाह रही थी कि जनता राहुल की इस बहादुरी पर लट्टू हो जाए.

पिक्चर अभी बाकी है. क्योंकि कांग्रेस मुक्त करने भारत बनाने का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी का भी पिछले कुछ दिनों से एक वीडियो फिर से शेयर हो रहा है. ये वीडियो है एक टीवी चैनल को दिए उस इंटरव्यू का, जिसे मोदी बीच में ही छोड़कर चल दिए थे. वजह, 2002 के दंगों पर सवाल. तो मोदी इंटरव्यू क्यों नहीं देते. प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं करते. ये सवाल विरोधी भी पूछते हैं और उनके चाहने वाले भी चाहते हैं. आखिर क्यों न मोदी एक बार खुलकर बात कर ही लें. ब्लॉग या ट्वीट का सहारा न लें. रैलियों में संकेत न करें. इंटरव्यू में या प्रेस कॉन्फ्रेंस में खुलकर बताएं कि दंगों के दाग, क्लीन चिट, इस पर जारी राजनीति और मुसलमानों पर उनका क्या सोचना है.

देश पर दावा ठोंकने वालों को ये समझना होगा कि ये इंटरव्यू इक आग का दरिया है और डूबें न डूबें जंप तो लगाना ही है.

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