जैसे कि प्रचलित धारणा है, उसके उलट दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी को फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि का ताला खोलने से जुड़े घटनाक्रम की जानकारी नहीं थी. यह दावा एक नई किताब में किया गया है जिसे राजीव गांधी के करीबी दोस्त वजाहत हबीबुल्लाह ने लिखा है.
जम्मू-कश्मीर कैडर के आईएएस हबीबुल्लाह, उस वक्त राजीव गांधी के पीएमओ में थे. वेस्टलैंड पब्लिकेशंस की ओर से प्रकाशित ‘टेल-ऑल’ संस्मरण 'माई इयर्स विद राजीव गांधी ट्राइम्फ एंड ट्रेजडी' में हबीबुल्लाह ने कहा है कि जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री से पूछा कि क्या वह ताला खोलने से जुड़े इन फैसलों में शामिल थे, तो राजीव का जवाब त्वरित और सीधा था- “किसी सरकार का ये काम नहीं होता कि वो पूजा स्थलों के कामकाज तय करने जैसे मामलों में दखल दे. मुझे इस घटनाक्रम का तब तक नहीं पता था, जब तक आदेश पास होने और उस पर अमल होने के बाद तक मुझे बताया नहीं गया था.” हबीबुल्लाह की किताब के इस साल अक्टूबर में आने की संभावना है.
राजीव गांधी का ये जवाब सुनकर थोड़ा चौंकने वाले हबीबुल्लाह ने उनसे अपने अगले सवाल को याद करते हुए कहा- "लेकिन, सर, आप प्रधानमंत्री थे." इस पर राजीव का जवाब था, “मैं असल में था. फिर भी मुझे इस कार्रवाई के बारे में सूचित नहीं किया गया, और मैंने वीर बहादुर सिंह से स्पष्ट करने को कहा था. (वीर बहादुर सिंह उस वक्त यूपी के मुख्यमंत्री थे, जिनकी निगरानी में, और जैसे कि अफवाहें थीं, जिनके निर्देशों पर मजिस्ट्रेट ने ये दूरगामी लेकिन दुष्प्रभाव वाला, या मैं कहूं घातक फैसला लिया.) मुझे संदेह है कि यह अरुण (नेहरू) और फोतेदार (माखन लाल) थे जो जिम्मेदार थे, लेकिन मैं यह वैरीफाई करा रहा हूं. अगर यह सच है तो मैं कार्रवाई करने पर विचार करूंगा.”
दून स्कूल में राजीव गांधी के साथ पढ़े हबीबुल्लाह के मुताबिक यह बातचीत सितंबर 1986 में हुई जब वह बोइंग के अंदर पीएम के केबिन में राजीव के सामने बैठे थे और सूखे की मार झेल रहे गुजरात के लिए उड़ान पर थे. 1 फरवरी, 1986 को फैजाबाद की एक स्थानीय अदालत ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि स्थल पर यथास्थिति बरकरार रखने संबंधी स्टे ऑर्डर को हटा दिया था जो 1949 में पास हुआ था.
‘अनरैवलिंग ऑफ द इंडियन टैपस्ट्री’ नाम वाले किताब के चैप्टर में हबीबुल्लाह बताते हैं. हबीबुल्लाह राजीव गांधी फाउंडेशन में चीफ एग्जीक्यूटिव, केंद्रीय कपड़ा सचिव रहे. वे भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन पद पर रहने के साथ जम्मू और कश्मीर के लिए सरकारी वार्ताकार भी रहे. उन्होंने अपनी किताब में कई चौंकाने वाले खुलासे किए हैं.
राजीव गांधी ने अपने करीबी पर की कार्रवाई
राजीव गांधी ने बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि पर ‘अविवेक’ दिखाने के लिए चचेरे भाई अरुण नेहरू के खिलाफ कार्रवाई की और नवंबर 1986 में उन्हें आंतरिक सुरक्षा राज्य मंत्री पद से हटा दिया. अरुण नेहरू राजीव के करीबी और दमदार मंत्री माने जाते थे. ये भी समान तौर पर ही चकराने वाला था कि अरुण नेहरू ने इस तरह अपनी छुट्टी किए जाने पर थोड़ी ही कड़वाहट दिखाई और सांसद के तौर पर और परिवार के सदस्य के तौर पर अपने दैनिक रूटीन सामान्य तौर पर करते रहे. तब तक जब वो जुलाई 1987 में राजीव के खिलाफ वीपी सिंह के साथ कंधा मिला कर नहीं खड़े हो गए.
बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि स्थल का ताला खुलने को लेकर राजीव, अरुण नेहरू और वीर बहादुर सिंह के बीच जो कुछ हुआ, उसका हबीबुल्लाह दिलचस्प अंदाज से खाका खींचते हैं. अपनी याददाश्त पर भरोसा करते हुए हबीबुल्लाह ने किताब में पीएमओ के काम करने के तरीके को पिरोया है.
पूर्व नौकरशाह वजाहत हबीबुल्लाह ने अपनी नई किताब में चौंकाने वाले खुलासे किए हैं. (Photo- PTI)
हबीबुल्लाह किताब में स्पष्ट करते हैं कि अधिकतर सब जानकारी रखने वाले राजीव किस तरह अयोध्या में अहम घटनाक्रम को लेकर पूरी तरह अनजान रहे. हबीबुल्लाह कहते हैं- “वीर बहादुर सिंह को जो भी उनसे (अरुण नेहरू) निर्देश मिले वो उन्होंने सीएम के तौर पर प्रधानमंत्री के आदेश की तरह लिए. संयोगवश वो अपना पद उनकी (अरुण नेहरू) ही मेहरबानी मानते थे. पीएमओ में उस वक्त चल रही फाइलों में मस्जिद को लेकर किसी भी मामले पर कोई विमर्श नहीं हुआ. यह मैं जानता था क्योंकि मैं सांप्रदायिक संबंधों से डील करने वाला अधिकारी था.”
हबीबुल्लाह ने याद करते हुए कहा कि किस तरह एक बार अरुण नेहरू ने उनसे मदद मांगी थी. हबीबुल्लाह कहते हैं, “जब मैं अरुण से पीएमओ में एक कैबिनेट मीटिंग के दौरान मिला (अरुण के कैबिनेट से ड्रॉप होने से पहले) था, तो वह मुझे एक तरफ ले गए और मुझसे कहा कि वीर बहादुर सिंह को पीएम से मिलने के लिए आना था लेकिन उनसे (अरुण) नहीं मिले. अरुण ने मुझसे कहा था क्या मैं उन्हें यूपी सीएम के किसी भी प्रस्तावित दौरे के बारे में और पीएम के साथ किसी भी निर्धारित बैठक के बारे में उन्हें सूचित कर सकता हूं.''
राजीव गांधी के कार्यक्रम तब उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज संभालते थे. जैसे कि किस्मत में लिखा था, हबीबुल्लाह कहते हैं कि वह अरुण नेहरू के अनुरोध को जॉर्ज तक पहुंचाना भूल गए.
इस बीच, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री (तत्कालीन) वीर बहादुर सिंह राजीव से मिले. इस घटनाक्रम ने अरुण नेहरू को बहुत परेशान किया. अरुण नेहरू ने हबीबुल्लाह को शिकायती लहजे में फोन किया कि उन्होंने वीर बहादुर-राजीव बैठक के बारे में उन्हें क्यों नहीं बताया.
अरुण से संपर्क करना बंद कर दिया- हबीबुल्लाह
हबीबुल्लाह लिखते हैं कि "मैं, निश्चित रूप से, बहुत क्षमाप्रार्थी था, भूल जाने के लिए कबूल किया. लेकिन इसके साथ ही यह पहेली भी सुलझने लगी.”
हबीबुल्लाह ने कहा ,“ मुझे तब तक यकीन हो गया था कि राजीव ने वीर बहादुर सिंह के साथ इस मुद्दे को उठाया था, जैसा कि उन्होंने बताया था, वीर बहादुर ने इसका विरोध किया होगा. ये कहते हुए कि वो आदेश को उनका (राजीव गांधी) आदेश समझे थे. इस पर राजीव ने सिंह को व्यक्तिगत रूप से आदेश लेने की सलाह दी होगी और किसी अन्य से नहीं, जिसे वो प्रधानमंत्री का करीबी समझते हों. इस त्रुटि के बाद सिंह ने तब अरुण से संपर्क करना बंद कर दिया, इससे उनका (अरुण) का संदेह और बढ़ा. इसी वजह से उन्होंने मुझसे अनुरोध किया लेकिन साथ ही हैरानी भी दिखाई."
हबीबुल्लाह लिखते हैं- “मुझे पता चला था कि राजीव को भी उनसे (अरुण नेहरू) संवाद करने में मुश्किल महसूस हो रही थी. जब उनसे (अरुण) कश्मीर में मीडिया ने संपर्क किया, (जब वह कैबिनेट से ड्रॉप होने के बाद छुट्टी पर थे), अरुण ने यह कहते हुए सवाल को खारिज कर दिया कि वह एक बीमारी से उबर रहे हैं और जल्द ही उन्हें फिर से री-एडजस्ट किया जाएगा. ऐसा नहीं होने जा रहा था.”
हबीबुल्लाह सिंतबर 1986 में गुजरात यात्रा के दौरान राजीव से पूछे गए अपने इस सवाल को भी याद करते हैं, ''मैं समझ सकता हूं कि तालों को हटाने से किसी भी तरह से यथास्थिति नहीं बदलने वाली थी, लेकिन हिंदू समुदाय के वर्गों से आपकी पार्टी को समर्थन मिल सकता था, क्या यह महसूस नहीं किया गया कि इस तरह का लाभ केवल सीमित हो सकता है और क्योंकि कांग्रेस का सार धर्मनिरपेक्षता में बना हुआ है, ऐसे में घटनाक्रम को अधिकतम अपने हक में नहीं भुनाया जा सकता क्योंकि यह धुर दक्षिणपंथी होंगे जो नतीजे को हाईजैक कर लेंगे और फिर इसे अपनी जीत के ट्रम्पट की तरह बजाएंगे.”
यही था जो आखिरकार सामने आया, काफी खून, नफरत और अशांति के साथ.
(ये लेखक के अपने विचार हैं. पत्रकार-लेखक रशीद किदवई ORF के विजिटिंग फैलो हैं)