पुलिस थाने में बैठी थी, जब एक कॉल आया. फोन पर खुदकुशी की बात कर रही वो बच्ची डॉक्टरी की तैयारी कर रही थी. मैंने मिलने की दरख्वास्त की तो कहा गया- ऐसे मामलों के बिगड़ते देर नहीं लगती. 6वीं मंजिल पर रहती लड़की 6 सेकंड भी नहीं लेगी और सब चला जाएगा. अधिकारी के चेहरे पर फिक्र और वॉर्निंग साथ-साथ.
मेरे देखते ही देखते कई फोन आ गए. उदासी के समंदर में डूबते-उतराते ये 'मामले' चमकीले सपने लिए कोटा आए थे, लेकिन इंस्टेंट छुटकारा खोजने लगे.
शहर के माथे पर आधे साल के भीतर दर्जनभर से ज्यादा मौतों का दाग लग गया है जबकि आधा साल अब भी बाकी है.
कोटावाले जंग लड़ रहे हैं. काउंसलरों से लेकर गलियों में रिक्शे-गुमटीवालों की शक्ल में जासूस तक तैनात हैं, जो चट से डिप्रेस्ड केस की खबर कोचिंग तक पहुंचा दें. उन्हें पकड़-धकड़कर वापस भेजा जा रहा है.
कहानी कोटा कीः जहां बच्चे वो मशीन हैं जिसमें जरा सा डिफेक्ट दिखा नहीं कि माल वापस!
'एक घुन सारे गेहूं को क्यों बेकार करे!' कोटा में एक नामी इंस्टीट्यूट के मीडिया एडवाइजर मिलते ही कहते हैं. साथ में जोड़ते हैं- ये सब आप मेरे नाम पर मत लिखिएगा. मैं आपका ही पेशा छोड़कर यहां परिवार के साथ रहने आया हूं. बच्चों और पेरेंट्स से मिलने के दौरान ही शहर के कई एक्सपर्ट्स से भी मुलाकात हुई. सबने माना कि वे तो पूरी कोशिश कर रहे हैं लेकिन कमी दूसरी तरफ रह जाती है.
शहर के एक इंस्टीट्यूट में काउंसलर डॉ. हरीश शर्मा मिलते ही ब्रेन का सिरेमिक मॉडल टेबल पर रख देते हैं. वे पेंसिल ठकठकाते हुए समझा रहे थे कि दिमाग का कौन सा हिस्सा कैसे काम करता है. टोकने पर कहते हैं- एक बार ये देख लीजिए तो बाकी सब समझना आसान हो जाएगा.
धीरे-धीरे हम मुद्दे पर आते हैं. डॉ शर्मा कहते हैं- दांत में दर्द है तो हमें कारपेंटर नहीं, डेंटिस्ट के पास जाना होगा. यही बात बच्चे समझ नहीं पाते. वे दोस्तों से, घरवालों से बात करते रहते हैं और फिर अनहोनी हो जाती है.
तो क्या आपके पास आए बच्चों के साथ कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ?
सवाल अनसुना रह जाता है. डॉ. शर्मा अब 'ऐसे बच्चों' के लक्षण बता रहे थे. अक्सर ऐसे बच्चों के कॉल देर रात आते हैं. वे सामने बैठकर कुछ बताना पसंद नहीं करते. हमारे पास चौबीसों घंटे काउंसलिंग चलती रहती है. उन्हें समझाया जाता है. जरूरत पड़े तो रात के रात ही हम हॉस्टल पहुंच जाते हैं. कई बार इन सबमें पेरेंट्स को भी जोड़ा जाता है ताकि वो भी समझ सकें.
क्या कोटा आए बच्चों को 'डिपोर्ट' भी किया जाता है?
हां. कई बार ये हो जाता है. अगर मामला सीवियर है और पढ़ाई पर छोटा पॉज देने से भी काम नहीं बनता तो हम उसे घर वापस भेज देते हैं.
मतलब कहीं न कहीं कोचिंगवाले जिम्मेदारी लेने से बच रहे हैं?
देखिए! कोचिंग में पढ़ाने का काम होता है, इलाज का नहीं. ये अस्पताल नहीं हैं. हम पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन मामला संभले नहीं तब क्या कर सकते हैं. अक्सर इसमें पेरेंट्स की गलती रहती है. हम उनके लिए भी ट्रेनिंग प्रोग्राम चलाते हैं लेकिन ज्यादातर मां-बाप को घर भागने की जल्दी होती है. वे बच्चे का एडमिशन कराते हैं और शाम की ट्रेन से लौट जाते हैं. फिर इसका खामियाजा भी उन्हें ही भुगतना होता है.
लगभग आधे घंटे की मुलाकात में डॉ. शर्मा कभी ब्रेन का स्ट्रक्चर दिखाते हैं, कभी अपने यहां तैनात काउंसलरों की खूबियां गिनाते हैं, लेकिन छूट जाते हैं तो असल जवाब. डेटा पर कोई बात नहीं होती. ये उनका एरिया नहीं. उन बच्चों पर बात नहीं होती, जो हारा हुआ बताकर लौटा दिए जाते हैं.
इंस्टीट्यूट से बाहर निकलती हूं तो तेज धूप है. बच्चे एक जैसी टीशर्ट, बैग और एक रंग की छतरियां लिए आ-जा रहे हैं, जैसे अलग-अलग कदकाठी का कोई ठप्पा हो. सबके चेहरों पर एक-सा अनमनापन. एक जैसी हड़बड़ी कि साथ वालों से पीछे न छूट जाएं.
कोटा पहुंचते ही एक अजीब बात पता लगी कि वहां हॉस्टलों में ट्विन-शेयरिंग कमरे लगभग ना के बराबर होते हैं.
क्यों? पूछने पर एक हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष बताते हैं- यहां तो बहनें-बहनें भी साथ नहीं रह पातीं. आने पर एक रूम मांगती हैं और महीनाभर खत्म होने से पहले अलग कमरे की डिमांड आ जाती है. तो हमने भी सिंगल रूम बनाए. थोड़े कमरे ट्विन शेयरिंग के लिए रखे तो खाली ही रह गए.
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अनजाने में ही ये शहर बच्चों को अकेलेपन की ट्रेनिंग देता है. घर छोड़कर आए बच्चे को सिखाया जाता है कि साथ पढ़ने वाले दोस्त नहीं, कॉम्पिटिटर हैं. वो हारेंगे, तभी तुम जीतोगे.
सबक हर दिन के साथ गाढ़ा होता चला जाता है. नंबरों के लिए मारकाट मचती है. इस बीच पीछे छूटा स्टूडेंट क्लास मिस करे, या खाने की टेबल से गायब रहता रहे, तो भी किसी को फर्क नहीं पड़ता. बल्कि शायद राहत ही मिलती हो कि एक तो पीछे छूटा!
शहरभर में जितने बच्चों से मिली, किसी भी आंख में भी किसी साथी के चले जाने की तकलीफ नहीं दिखी. सब के सब मशीनी जल्दी में. एक कहता है- कमजोर स्टूडेंट से दोस्ती करो तो मोटिवेशन नहीं मिलती. तेज से करो तो डर लगता है. कोटा आकर दोस्त खत्म हो गए. थकान में डूबी आवाज, जैसे मीलों दौड़कर आया हो.
खुदकुशी के मामले दिख जाते हैं, लेकिन इससे कहीं ज्यादा वे केस होते हैं, जिनमें बच्चा बच जाता है. ऐसे बचे हुए बच्चे बाकियों के दिमाग पर असर न डालें, इसके लिए रातोरात ही उनकी घरवापसी हो जाती है.
कुछ हफ्तों पहले कोटा में एक स्टूडेंट सेल बनी, जिसपर हेल्पलाइन नंबर दिया हुआ है. कॉल करके स्टूडेंट चौबीसों घंटे दुख-फरियाद सुना सकते हैं. पोस्टर देखते ही शहर की अर्जेंसी समझ आती है. खुदकुशी के नंबर भले दर्जनों में हों, उसका खयाल शायद हजारों में हो!
अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक (एएसपी) चंद्रशील ठाकुर सेल के इंचार्ज हैं. उनसे कुछ देर की मुलाकात में ही कई मामले आ गए. फोन पर रोती हुई बच्ची, 17 साल का एक लड़का, जो पढ़ाई छोड़कर लोकल गुंडों के साथ रहने लगा है. ये अब स्टूडेंट नहीं, बदमाश बनने की तरफ है.
इससे पहले कि कुछ बड़ा हो, हम ऐसों को आइडेंटिफाई करके वापस भेज देते हैं. साल में 2 से 4 सौ ऐसे केस आते हैं, जब बच्चों को घर लौटाना पड़ता है- एएसपी बताते हैं.
ज्यादातर ऐसे स्टूडेंट डेविएंट (भटके हुए) होते हैं. कई डिप्रेशन के मामले होते हैं. पहले तो हम समझाते हैं, लेकिन अगर लगता है कि उनका घर से दूर रहना मुसीबत बन सकता है तो हम घरवालों को फोन करके इनवॉल्व करते हैं. वे आकर बच्चे को ले जाते हैं.
लौट चुके बच्चों का क्या फॉलोअप होता है कि वे आगे कैसे रहे? इस पर किसी से कुछ खास पता नहीं लगा. शायद वे एक वायरस थे, जिनके चलते शहर में खौफ फैलता.
कड़वा घूंट गटकने के अंदाज में हॉस्टल एसोसिएशन के भगवान बिड़ला कहते हैं- कितने साल मेहनत करनी है! एक-दो साल. इसके बाद तो सब सेट होगा. कोई स्टूडेंट ये भी न कर सके तो इसमें कोचिंग या हॉस्टल की क्या गलती?
बात सही भी है. इसमें कोचिंग, हॉस्टल या शहर की गलती नहीं.
बस, चूक इतनी है कि सारा का सारा सिस्टम विजेता तैयार करने में जुटा हुआ है. ऐसे में पिछड़ रहे बच्चे वो खोई हुई चीज बन जाते हैं, जिनका किसी को खयाल तक नहीं आता. या फिर आता भी है तो किसी दाग या बदनामी की तरह.
शहर में वो मेरा आखिरी घंटा था. सामने कामयाब स्टूडेंट्स के आदमकद पोस्टर. अपनी-अपनी कोचिंग की टी-शर्ट पहने हुए ये बच्चे 'विक्टरी' साइन दिखा रहे हैं. ये वही जीत है, जिसके पीछे कितने ही बच्चे हमेशा के लिए हार गए.
फोन पर बात करते हुए बुलंदशहर की मां ने कहा था- बुखार में जो मम्मी-मम्मी करने लगता था. फांसी का फंदा बनाते हुए कितनी तकलीफ में रहा होगा...!
(वक्त कम था, कहानियां ज्यादा. हम चाहकर भी सारे पहलू नहीं समेट सके. लेकिन, एक बात नए कांच की तरह साफ थी कि अनजाने में ही कोटा जीत के नाम पर हार की शर्मिंदगी का शहर बन रहा है. शायद थोड़ी मुलायमियत, थोड़ी और संवेदना शहर के माथे के ताज को ज्यादा जगमग बना सके.)