जिस तरह से अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के बीच एक विवाद छिड़ा और जिस तरह से उसे मीडिया में हवा दी गई उससे हम सभी को चिंतित होना चाहिए. भारतीय राजनीति में ताजी हवा बहने से पहले ही संशय के घने बादल छा गए हैं.
केजरीवाल का राजनीति में आना एक बदलाव जैसा लग रहा था. भारतीय राजनीति के घिसे-पिटे चेहरों और मोहरों के बीच कुछ नए लोग हमारे बीच दिख रहे थे जिनसे ईमानदारी और शुचिता की उम्मीद थी. लेकिन गुरु और शिष्य के रिश्तों में खटास से बात कुछ बिगड़ सी गई.
अन्ना ने केजरीवाल का हमेशा साथ दिया लेकिन राजनीतिक दल बनाने के मुद्दे पर दोनों अलग हो गए. लेकिन चंदे की राशि को लेकर अन्ना ने जो चिट्ठी लिखी उसका कितना गलत अर्थ लगाया गया? यह बात तो वह केजरीवाल से कभी भी पूछ सकते थे. आम आदमी पार्टी के किसी भी पदाधिकारी को बुलाकर वह पूछताछ करवा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा करने की बजाय एक चिट्ठी लिखी जो मीडिया में आ गई. अब नुकसान तो हो ही गया है, केजरीवाल की मंशा और ईमानदारी पर राजनीतिक दलों ने सवाल खड़े कर दिए हैं. अब तक उन्हें कुछ ठोस नहीं मिल पा रहा था लेकिन इस बार एक मौका मिल ही गया. अब अन्ना कुछ भी कहें, बात तो बिगड़ ही गई है.
भारतीय लोकतंत्र के लिए यह हताशा का विषय है. जनता राजनीति में बदलाव चाहती है और कुछ ऐसे लोग देखना चाहती है जिनके दामन साफ हों. नैतिकता और ईमानदारी राजनीति के दुर्लभ शब्दों में शुमार होते जा रहे हैं. ऐसे में आम आदमी पार्टी की अपनी अहमियत है और इससे लोगों को उम्मीदें भी हैं. भ्रष्टाचार के समुद्र में डूबते-उतराते देश के लिए यह छोटी सी नैया भविष्य का रास्ता दिखा रही है.
हो सकता है यह पार्टी चुनाव में कुछ नहीं कर पाए लेकिन आगे के लिए उम्मीदों का दरवाजा तो दिखा ही सकती है. इससे ईमानदार लोग राजनीति में आने से तो कतराएंगे नहीं. भारतीय लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है कि इसमें ईमानदार और चरित्रवान लोग शिरकत करें लेकिन इस तरह के विवाद और बेबुनियाद आरोपों के बाद कौन इस तरफ आने की हिम्मत जुटाएगा?