पिछले कुछ वर्षों से संसद विरोध का प्लेटफॉर्म बनती जा रही है. जब कोई मुद्दा गरम होता है या कोई विवाद होता है तो गाज संसद पर ही गिरती है. विपक्ष पूरी ताकत लगा देता है कि वह चलने न पाए जैसे कि संसद के चलने से आसमान टूट पड़ेगा और देश बर्बाद हो जाएगा. विपक्ष खासकर बीजेपी ने 2जी घोटाला, कोयला घोटाला जैसे बड़े मुद्दों पर तो व्यवधान पैदा किया ही, छोटे-छोटे मुद्दों पर भी कोहराम मचाया और संसद नहीं चलने दी. अब तेलंगाना मुद्दे पर संसद नहीं चल ही पा रही है. कांग्रेस चाहती है कि वह तेलंगाना के विभाजन का बिल रखे लेकिन उसका इतना विरोध है कि सदन की बैठक रद्द करनी पड़ रही है.
15वीं लोकसभा के जीवन काल के अब कुछ ही दिन शेष रह गए हैं और इसका प्रदर्शन अब तक चुनी गई लोक सभाओं में सबसे खराब रहा है. इसने सबसे कम बिल पारित किए और महत्वपूर्ण मुद्दों पर इसमें सबसे कम बहस हुई है. इस सत्र में 39 बिल सूचीबद्ध हैं जिनमें से ज्यादातर का कोई भविष्य नहीं है. यानी वे पारित नहीं हो सकेंगे. इस सत्र में अगर कोई बिल पास हो सकेगा तो वह है लेखानुदान. मतलब साफ है कि यह सत्र भी कोलाहल और शोरशराबे की भेंट चढ़ने जा रहा है.
तेलंगाना के मुद्दे को अगर कांग्रेस बीजेपी के साथ बैठकर सुलझा भी लेती है तो समय इतना कम रह जाएगा कि कुछ भी सर्जनात्मक कार्य नहीं हो पाएगा. अगर कुछ बिल पारित करा भी दिए जाते हैं तो उनमें बहस की गुंजाइश नहीं रहेगी जैसा पिछले कुछ सत्रों में हुआ था. यह भी एक शर्म की बात होगी कि बिना किसी बहस के राष्ट्रीय महत्व के बिल पारित करा लिये जा रहे हैं.
एक समय था जब संसद में बिलों पर जबर्दस्त बहस छिड़ती थी, सदस्यों की विद्वता, उनकी वाकपटुता के चर्चे होते थे और जनता में एक अच्छा संदेश जाता था. यह संसदीय लोकतंत्र का एक खूबसूरत पहलू है. लेकिन अब कुछ वर्षों से संसद कोहराम और शोरशराबे के लिए जानी जा रही है. विचार मंथन और सर्जनात्मक बातचीत के लिए लगता है कि यहां कोई जगह नहीं बची है.
इसी संसद में अनेक विषयों पर घंटों बहस चला करती थी, सदस्य हफ्तों पहले से तैयारी करते थे और अपनी बात असरदार ढंग से रखते थे. लेकिन अब बात शोरशराबे से आगे नहीं बढ़ पाती है. लगता है कि सदस्यों की भी रुचि इसमें खत्म हो गई है. वे वाकआउट करते हैं और सदन में कोई चर्चा नहीं होने देते. यह बात अलग है कि बाद में कई सदस्य उसी विषय पर टीवी चैनलों पर गर्मागर्म चर्चा करते दिख जाते हैं. यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है. संविधान के निर्माताओं ने यह कभी नहीं सोचा होगा कि इस महत्वपूर्ण सदन का यह हश्र होगा. अब वक्त आ गया है कि इस बारे में सोचा जाए कि इसका कीमती वक्त कैसे बर्बाद होने से रोका जाए. इससे पहले कि लोकतंत्र का यह स्तंभ गिर जाए कोई ठोस कदम उठाना ही होगा.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'आज तक' के संपादकीय सलाहकार हैं.