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भारत को चाहिए ऐसा सुपरहीरो, जिसे याद हों करोड़ों हैशटैग

हॉलीवुड फिल्मों के सुपरहीरो साल भर में कम से कम सौ-सवा सौ बार दुनिया को महाविनाश, नरपिशाचों, एलियंस के हमले, जादुई अंगूठी के प्रकोप, दैत्याकार अजगरों और मछलियों का भोजन बनने या रासायनिक हमले से बचा लेते हैं. इन हमलों से बिना सींक उठाए बचकर भी बॉलीवुड वाले नहीं सुधरते और हर बार ग्रैंड मस्ती, हमशकल्स और क्रीचर जैसी फिल्में बनाकर वैम्पायर्स को फिर हमारा खून चूसने को उकसाते हैं. ऐसे में हम मुंबइया फिल्म देखने वालों के मन में हीनभावना के साथ-साथ खुद के सुपरहीरो न होने की कुंठा भी कुनमुनाती है.

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शक्तिमान के किरदार में मुकेश खन्ना
शक्तिमान के किरदार में मुकेश खन्ना

हॉलीवुड फिल्मों के सुपरहीरो साल भर में कम से कम सौ-सवा सौ बार दुनिया को महाविनाश, नरपिशाचों, एलियंस के हमले, जादुई अंगूठी के प्रकोप, दैत्याकार अजगरों और मछलियों का भोजन बनने या रासायनिक हमले से बचा लेते हैं. इन हमलों से बिना सींक उठाए बचकर भी बॉलीवुड वाले नहीं सुधरते और हर बार ग्रैंड मस्ती, हमशकल्स और क्रीचर जैसी फिल्में बनाकर वैम्पायर्स को फिर हमारा खून चूसने को उकसाते हैं. ऐसे में हम मुंबइया फिल्म देखने वालों के मन में हीनभावना के साथ-साथ खुद के सुपरहीरो न होने की कुंठा भी कुनमुनाती है.

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पिछले कुछ सालों में ले- देकर एकाध देसी सुपरहीरोज नजर भी आए लेकिन कोई खास असर नहीं छोड़ सके, अब कोई कब तक एलियन से उधार की शक्तियां पाए इंसान को बाप-बीवी-बच्चे संभालते देखे ? इस हिसाब से अभी तक हमारे पास एक ही ढंग का सुपरहीरो है, शक्तिमान. उनके सुपरहीरो होने से ज्यादा उनके होने का असर होता है.

ढूंढ़कर देख लीजिए. 1990 के बाद की पीढ़ी के ‘छोटी-छोटी मगर मोटी बाते’ सीखकर बड़े हुए बच्चे आज भी हाथ से पटाखे नहीं छोड़ते. खाना खाते हुए कॉमिक्स नहीं पढ़ते, छत पर पतंग उड़ाते नहीं दिखते. वजह ये नहीं कि दौर बदल गया. बच्चे बड़े हो गए या छत पर पतंग उड़ाने या घर में कॉमिक्स रखने की जगह नहीं बची. वजह ये कि शक्तिमान ने मना किया था.

हमें सुपरहीरो चाहिए और अलग किस्म का सुपरहीरो चाहिए. इतना तो बच्चे भी जानते हैं कि भूत-पिशाच और अच्छे दिन कुछ नहीं बस मन का वहम होते हैं. इसलिए आज का हमारा सुपरहीरो निशाचरों से लड़ने की बजाय कुछ रचनात्मक करेगा लेकिन उससे पहले उसकी पहचान छुपाना जरूरी है.

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हमारे सुपरहीरो का एक नाम है पर उसका असली नाम किसी को पता नहीं होगा. नाम पहचान बताएगा. पहचान विवाद की जड़ है ये वो दौर है जब नारियल और खजूर भी अलग मजहब के हैं. बकरे और बैल के धर्म बंटे हैं. पनीर के साथ रुमाली रोटी खा लो तो लव जेहाद हो जाता है. ऐसे में नाम पता होना खतरे से खाली नहीं, ‘कृष’ जैसे साम्प्रदायिक नाम तो हरगिज नहीं चलेंगे.

एक बार नाम का काम तमाम हो जाए तो तमाम कामों की बारी आती है. पहले ही बताया गया है, हमारा सुपरहीरो आज के माहौल के हिसाब से ढला है. बिना टोपी वाले आम आदमी की समस्याओं को समझता है. इसलिए छाती भले छप्पन इंच की न हो पर छप्पन किस्म के काम कर सकता है. ऑफिस जाते वक्त रोज लगने वाला ट्रैफिक जाम खुलवा सकता है. लोकल ट्रेन में खिड़की वाली सीट दिला सकता है. छूट जाए तो उड़ाकर सिटी बस में बिठा सकता है. जनरल की बोगी में मोबाइल का चार्जिंग पॉइंट खोज सकता है. किसी बच्चे को तत्काल में दीपावली पर घर जाने का टिकट दिला सकता है. मेट्रो की उन सीटों को खाली करवाने की हिम्मत रखता हो, जो सिर्फ महिलाओं के लिए हुआ करती हैं.

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सुपरहीरो सिर्फ सोशल सर्विस नहीं करेगा. उसे लाइक और शेयर का मोह नहीं होगा बल्कि उसका खुद का सोशल नेट्वर्किंग साइट पर अकाउंट होगा. उसके नेट की चैतन्यता कभी खत्म नहीं होगी. नोकिया 3310 पर वो 4G चला सकेगा. किसी स्पेक्ट्रम घोटाले का उस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. रोज महंगे होते नेट पैक से वो विचलित नहीं होगा. उसे करोड़ों हैशटैग कंठस्थ होंगे. व्हाट्सएप के दो किलोमीटर लम्बे स्पैम मैसेजेज को वो रास्ते में ही भस्म कर सकेगा.

सुपरहीरो से ज्यादा उसका फोन स्मार्ट होगा. आज के स्मार्टफोन्स की तरह जल्द डिस्चार्ज होने वाला नहीं, जो अच्छे–भले इंसान को चार्जर के गिर्द समेट खूंटे का बैल बना दे बल्कि ऐसा जिसकी बैटरी से ब्लैकआउट के वक्त शहर भर के इनवर्टर चार्ज हो सकेंगे. शक्तियां और क्षमताएं अनंत होंगी. फेक प्रोफाइल्स कोप्रोफाइल पिक्चर से पहचान लेगा. उसके एंटीवायरस का कोई वायरस पार न पा सकेगा. उसका फेसबुक कभी डाउन नही होगा. ट्विटर पर फॉलोअर कम न होंगे. व्हाट्सएप के नोटिफिकेशन बंद न होंगे. हर कारनामे के बाद एक सेल्फी पोस्ट करेगा.

वाइबर, हाइक, वी-चैट, लाइन, स्काइप, वोक्सर, हे टेल, टेक्स्ट नाउ, कीक, स्नैप चैट, फेसटाइम, बीबीएम समेत एक सौ सात भांति के मैसेजिंग ऐप से सुसज्जित कुल जमा बड़ा सामजिक सा सुपरहीरो होगा. न कि ऐसा जो सिर्फ रात को काला लबादा ओढ़े और मुखौटा पहने निकले. अपनी जिंदगी में भले वो आम सा हो. खुद को पेट के ऊपर से पैंट चढ़ाए. मोटे चश्मे से झांकता, सब्जी वाले से तीस के टमाटर पच्चीस में लेकर मुफ्त में धनिया-मिर्च की झिकझिक करने से न रोक सके. पर सुपरहीरो बनकर छोटी-मोटी झडपें ही रोक सके.

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भावी महामानव से अपेक्षाएं कुछ ज्यादा हैं क्योंकि अभी मानवता उपेक्षित है. भलाई के लिए वक्त कम है और बर्बाद करने को बेतहाशा. समस्याएं बड़ी नहीं हैं क्योंकि नरपिशाच और एलियंस से हमारा सामना नहीं होता. दरअसल, समस्या हमारे साथ है इसीलिए तो किनारे खड़े को सड़क पार कराने और दो गली आगे का घर बताने के लिए भी सुपरहीरो चाहिए. सही रास्ता बताने को सुपरहीरो चाहिए.

आशीष मिश्रा फेसबुक पर सक्रिय युवा व्यंग्यकार और पेशे से इंजीनियर हैं.

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