अपने ‘बाबूजी’ को याद करते अमिताभ बच्चन अक्सर कहते हैं, “मन का हो तो अच्छा – और अगर मन का न हो तो और अच्छा.” दिल्ली चुनाव के नतीजों से इतना तो साफ ही है कि ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन के नहीं हैं. अब अगर ये उनके मन के नहीं हैं तो इसमें अच्छा क्या है? आइए इस स्पेशल एपिसोड में प्रधानमंत्री मोदी से ही सुनते हैं उनके मन की बात.
मित्रों,
आज मेरा मन बहुत हल्का हो गया है. आप भाई बहनों का फैसला मेरे सर-आंखों पर. दिल्ली चुनाव के नतीजे वाकई लोगों के मन की बात है. लोगों ने खुल कर अपने मन की बात की है. मेरी ओर से आप सभी को साधुवाद. आज मेरे मन में कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें आपने ही आप से साझा करने का मौका दिया है.
1. आज मैं दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने जा रहे अरविंद केजरीवाल की बात से सहमति जताना चाहता हूं. उन्होंने बिलकुल ठीक कहा है कि अहंकार सबसे बड़ा दुश्मन होता है. हमारी पार्टी में भी कुछ लोगों के अंदर ये अहंकार घर कर गया था. दिल्ली चुनाव के नतीजे उसी का नतीजा हैं. ये बात स्वीकार करने में मुझे कोई गुरेज नहीं है.
2. उत्तर प्रदेश में रिकॉर्ड सीटें जीतने के बाद से ही अमित शाह जी का विश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया था. महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में जीत हासिल होने के बाद ये ओवर कॉन्फिडेंस में तब्दील हो चुका था. यहां तक कि अपनी बात मनवाने के लिए वो ऐसे तर्क और मिसाल देते थे कि उन्हें मनमानी करने की छूट मिल जाती थी.
3. मैं मानता हूं कि दिल्ली में वरिष्ठ नेताओं के मन की बात को नजरअंदाज किया गया. कृष्णानगर से किरण बेदी की हार से ये बात भी साफ हो चुकी है कि उनके मन की बात को इग्नोर करने का क्या खामियाजा होता है. वरना जिस सीट से डॉ. हर्षवर्धन बरसों से जीतते आ रहे थे, वहां से किरण बेदी जैसी शख्सियत का हार जाना कोई मामूली बात नहीं है.
4. कार्यकर्ताओं की नाराजगी का आलम ये था कि वे दिल्ली के लोगों तक नहीं पहुंच पाए. उनके मन की बात नहीं सुनी जा सकी. उनके मन की बात नहीं समझी जा सकी. ये हमारी ओर से सबसे बड़ी कमी रह गई.
5. दिल्ली विधान सभा के चुनाव भी अगर महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ करा लिए गए होते तो बात और होती. हमारे विरोधियों ने इसका पूरा फायदा उठाया, लेकिन हमे ये बात समझ में नहीं आई. कम से कम इसी बहाने हमें आत्म निरीक्षण का मौका मिला है. इसके लिए हम आप सभी के शुक्रगुजार हैं.
6. मैं ये तो नहीं मानता कि किरण बेदी जी को बीजेपी में लाना और उन्हें बतौर मुख्यमंत्री पेश किया जाना कोई बहुत ही घटिया फैसला था. हां, ये फैसला देर से लिया गया ये मैं जरूर मानता हूं. अगर केजरीवाल की तरह किरण बेदी जी को भी राजनीति को करीब से समझने का मौका मिला होता तो उन्हें ये शिकस्त नहीं मिलती.
7. खैर, बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेहु. मैं भी इसी फिलॉसफी में यकीन रखता हूं. अब बिहार की बारी है. हम कोई जल्दबाजी में नहीं हैं. वरना मांझी प्रकरण में मास्टर की तो हमारे ही हाथ में है. लेकिन हमने इसे जनता के फैसले पर छोड़ने का निर्णय लिया है. अब हमे बिहार के लोगों के मन की बात का इंतजार रहेगा.