पिछले डेढ़ साल से जब से देश में चुनावी माहौल बना. देश, देश कम सास, ननद, जेठानियों से भरा ससुराल ज्यादा नजर आने लगा है.
ताने-उलाहने, रूठना, मनाना, खीझना-खिसियाना स्थाई भाव हो पड़े हैं. चुनाव से पहले गठबंधन वालों पर यूं तंज कसे जाते थे, मानो ननद तीन महीने से मायके में टिकी हो. चुनाव बाद नई सरकार को नई बहू समझ लिया गया. हर फैसले पर यूं कुट्टई होती है मानो पतोहू ने चने की भाजी में हल्दी बुरक दी हो.
एक साल बीतते न बीतते 'कहां है पोता?' पूछा जाने लगा. कइयों को नई बहू का मुंह उठाए रोज-रोज मोहल्ले में फिरना भी नहीं सुहाता. महंगाई, भूकम्प-ओले या सूखे की आशंका खबर कोई भी हो जेठानियां साबित करने में लग जाती हैं. नई बहू के कदम शुभ नहीं. उधर बहू चुगलखोर हो रखी है. बाहर जाते ही पड़ोसियों के आगे पिछली सरकार की बुराइयां शुरू कर देती है.
हालांकि उनका 'मेरे गुजरात-मेरे गुजरात' कहते रहना पहले भी 'मेरे पीहर में ऐसा होता है' सा साउंड करता था. हमारे गांव में एक मंगला चाची हुआ करती थीं. उनकी मानें तो उनके ससुराल आने के पहले सब बड़े जाहिल थे. दिन में सब्जी भी एक बार बनती थी. चाय भी कटोरे में पीते थे, जब मोदी जी को बाहर बोलते सुनता हूं, मंगला चाची याद आ जाती हैं.
समझिए कि सास-बहुओं की कभी पटती क्यों नही? सास ने अपने हिसाब से एक चीज कहीं रख दी. अब बहू भले मारे-मुरेरे रोए-गिड़गिड़ाए एक सींक न हिलाती हो. वो चीज जरूर उठाकर कहीं और रख देगी. फिर क्या होता है ये आप दिल्ली में देख सकते हैं. वैसे दिल्ली के अलावा कहीं किसी राज्य में आमतौर पर मुख्यमंत्री और राज्यपाल की नहीं ठनती. इस बात के दो ही अर्थ निकलते हैं या तो सारे तालाब में भांग घुली है या फिर केजरीवाल की किस्मत ही खट-पिट वाले पेन से लिखी गई थी. दिल्ली के एपिसोड से एक बात और साफ होती है. सास-बहू में गलती भले जिसकी हो नुकसान अक्सर घर वालों को उठाना पड़ता है.
ससुराल वाली राजनीति को सबसे करीब से देखना हो तो बिहार में देखिए. सास ने बहू को दो दिन के लिए कमरे की चाभी क्या दी, पतोहू ने भण्डार पर हक जमा लिया. दिन पलटे और मांझी का चूल्हा अलग हो गया. गांवों में जब बंटवारा होता है तब फिर एक ही आंगन में चार झाड़ूएं लगती हैं. जिसके हिस्से में चापाकल, बिजली मीटर और मेन गेट आ गया वो दूसरे को नाकों चने चबवा देता है. आजकल नीतीश कुमार ने मांझी निवास का बिजली-पानी काट फल-सब्जियों पर पुलिसिया पहरे लगा दिए हैं. एक बार फिर सोचिए ये राजनीति बस नहीं न है.
(युवा व्यंग्यकार आशीष मिश्र पेशे से इंजीनियर हैं और इंदौर में रहते हैं.)