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व्यंग्य: लेखक को होती हैं तमाम दिक्कतें, आम लोग क्या जाने 'लेखकों' को दर्द

लेखक हो जाना बुखार पकड़ने जैसे होता है. जब तक तीन-चार लोग रंग-ढंग देखकर घोषित न कर दें कि आप लेखक हो गए हैं तो यकीन ही नहीं होता और यकीन हो जाए तो समझ नहीं आता कि ले सब हुआ कैसे?

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लेखक हो जाना बुखार पकड़ने जैसे होता है. जब तक तीन-चार लोग रंग-ढंग देखकर घोषित न कर दें कि आप लेखक हो गए हैं तो यकीन ही नहीं होता और यकीन हो जाए तो समझ नहीं आता कि ले सब हुआ कैसे?

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माता मृदुलानन्दमयी ने तो यहां तक कहा है कि "लिखियापा इक व्याधि है, जिसको लगी उसकी तो लगी." लेखकों के सामने बड़ी मुश्किल होती है खुद को लेखक मानने की. दुनिया कहती रहे लेकिन अंदर से खुद को समझाना मुश्किल होता है कि लेखक बन चुके हैं. ऐसी परिस्थिति में दाद देनी होगी उन लेखकों के हौसले की जो हाथी-चींटी और संता-बंता से आगे निकलते ही नेमप्लेट पर लेखक लिखा लेते हैं. लेकिन असल लेखक कभी खुद को लेखक नहीं कहता. भला बताइए कोई मानवता पर अगले कुछ सालों तक कहर ढाने का जुगाड़ कर के आया हो तो कैसे अपने मुंह मियां मिट्ठू बन जाए?

सच तो ये है कि लेखक हमेशा एक अपराधबबोध लिए जीता है. छप जाए तो भी और न छपे तो भी. छपने के बाद ये अपराधबोध कि छपने लायक था भी? और न छपे तो ये उलझन कि छपने लायक क्या नही? पैसे मिलने पर लगता है कि अपने लिखे को बेच डाला और पैसे न मिले तो ये कुण्ठा कि दो कौड़ी भर की पूछ नहीं. अच्छा लिखे तो उलाहने पाता है बुरा लिखे तो ताने. सच्चा लेखक वही होता है जो पैसों की चिंता किए बिना लिखे. ऐसे लेखकों की जरुरत समाज को बहुत ज्यादा होती है. हम संपादक समाज की बात कर रहे हैं. किसी भी लेखक को दो चीजों का बड़ा अफसोस होता है. पहला ये कि अब का लिखा पढ़ वो सोचता है कि पहले जैसे क्यों नहीं लिख पाता और पहले का लिखा पढ़ ले तो इस सोच में पड़ जाता है कि आखिर उसने इतना बुरा लिखा ही क्यों?

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लेखक सबसे कमजोर तब होते हैं जब वो बातें कर रहे हों और सबसे शक्तिशाली तब जब विचार कर रहे हों. लेखक से दुर्भाग्यशाली और कौन हो सकता है? एक लेखक के परिवारीजन. उन्हें तो पता भी नहीं होता कि इस जन्म के पापों का फल भुगत रहे हैं या पूर्व जन्मों के? लेखक अच्छा हो या बुरा मरकर नर्क ही जाता है क्योंकि स्वर्ग में देवता उन्हें फटकने ही नहीं देते. क्या पता कब उनपर भी कलम चला दें? लेकिन लेखकों की पत्नियां हमेशा बैकुण्ठ ही जाती हैं. नर्क 'बस इस आर्टिकल का पैसा आने दो' सुनते-सुनते भुगत लेती हैं और स्वर्ग के सुख उनके लिए बेमानी हो जाते हैं. वो युवतियां जो किसी स्वनामधन्य लेखक से ब्याही जाने वाली हैं. इस छब्बीस जनवरी हाथी पर बैठ वीरता पुरस्कार पाने की अधिकारिणी हैं.

परेशान सिर्फ फटेहाल लेखक ही नहीं होते. न वो लेखक जो पढ़े नहीं जा रहे या फिर न वो लेखक जिन्हें मोहल्ले का पंसारी तक नही पहचानता. वो लेखक जो अच्छा लिख-छप-दिख रहे हैं वो भी परेशान होते हैं. कोई कह दे आप फलाने सा लिखते हैं तो मौलिक न रह पाने का भय और कोई कह दे ढिकाने सा लिखते हैं तो ये खटका सोने नहीं देता कि इतना बुरा कब से लिखने लगे?

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उससे भी बुरा लगता है,अपने लिखे को दूसरे के नाम से पढ़कर. शब्द इतना असर छोड़ते हैं कि लिखने वाले को छोड़ जाते हैं. लेखक से उम्मीद की जाती है कि वो कभी अपने लिखे पर और का नाम देखकर शिकायत न करे क्योंकि वो बड़ा लेखक है. ये बिलकुल ऐसा है कि आप बड़े आदमी बनना चाहते हैं बदले में पूरा मोहल्ला आपके बच्चे को अपना बताए.

(युवा व्यंग्यकार आशीष मिश्र पेशे से इंजीनियर हैं और इंदौर में रहते हैं.)

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