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व्यंग्य: प्लीज मर्दों पर दया करो वरना जमाना क्या कहेगा?

19 नवंबर को विश्व पुरुष दिवस था. विडंबना तो देखिए साथ ही वर्ल्ड टॉयलेट डे भी है. अब आप समझ सकते हैं कि मर्दों की दशा कितनी शोचनीय है. 'पुरुष प्रधान समाज' शब्द की आड़ में पुरुषों को चाहे जितना कोस लिया जाए. पर असल मुसीबत तो मर्दों की ही होती है. सबसे पहले तो जमाने भर की चिंताएं इन्हें ही होती हैं.

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19 नवंबर को विश्व पुरुष दिवस था. विडंबना तो देखिए साथ ही वर्ल्ड टॉयलेट डे भी है. अब आप समझ सकते हैं कि मर्दों की दशा कितनी शोचनीय है. 'पुरुष प्रधान समाज' शब्द की आड़ में पुरुषों को चाहे जितना कोस लिया जाए. पर असल मुसीबत तो मर्दों की ही होती है. सबसे पहले तो जमाने भर की चिंताएं इन्हें ही होती हैं. जिस वक्त महिलाएं टीवी सीरियल्स में बहू की चौथी शादी की विदाई पर इमोशनल हो रही होती हैं, उस वक्त पुरुष पुतिन के जंगी जहाजों पर नजरे गड़ाए होते हैं. उड़द के भाव गिरें या न्यूयॉर्क एक्सचेंज में दाम घटे या बढ़ें, असर पुरुषों पर होता है. कहीं चुनाव हों तो आफत ही समझिए और दूसरे टाइमजोन में फुटबॉल के मैच हों तो गई रातों की नींद.

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यही नहीं कदम-कदम पर पुरुषों को समझौते भी करने पड़ते हैं. मन मारना पड़ता है. कभी सही फिटिंग के कपड़े नहीं मिलते तो कभी सही रंग के जूते. घर से लाख मन बना कर जाएं पर अंत में काले जूते और ओवरसाइज चेक शर्ट उठा लाते हैं. इन पर जुल्म की इंतहां देखिए कि कोई पुरुष चाहे 104 डिग्री बुखार में बस या ट्रेन में खड़ा हो उसे कोई सीट नहीं देता. वहीं दूसरे किसी दिन भली-चंगी महिला के लिए अगर वही पुरुष सीट न छोड़े तो दुनिया खा जाने वाली नजरों से घूरती है. कभी आपने किसी महिला को बीमार पुरुष के लिए सीट छोड़ते देखा है?

प्रकृति ने भी हमारे साथ कम अन्याय नहीं किया है. पहला तो हमें कलर ब्लाइंड बनाया. जब साथ में शॉपिंग पर गई बीवी या गर्लफ्रेंड बेबी पिंक, टॉर्काइज, मैजेंटा, सेलमन में डूबी होती हैं तो नजरें कहीं लाल-नीले को खोज रही होती हैं. दूसरा हिसाब लगाने में कच्चा छोड़ दिया. इसका पता खाना बनाते वक्त चलता है. महिलाओं से पूछो कि दो जनों को कितना चावल बनाएं. कितना पानी डालें कब तक पकाएं? तो जवाब आता है, चार मुट्ठी चावल, चावल से तीन अंगुल ऊपर तक पानी और एक सीटी बजा कर बंद कर दो. अब इस हिसाब को सही मानकर अगर आप चावल पकाने जाएं तो न तो चावल सही पड़ेगा न पानी और सीटी तब जाकर बजेगी जब चावल जलकर राख हो चुके होते हैं.

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पुरुष बेचारे तो किसी से दुश्मनी तक नहीं पालते. उल्टा महिलाएं तो उस औरत की परछाई से भी बचती हैं जो उनकी उमर पूछ लें या उनकी तरह ईयररिंग तक पहन लें जबकि पुरुष अपनी तरह का शर्ट पहने भी किसी को देख ले तो यूं जा मिलता है जैसे कुम्भ में बिछड़ा भाई. कहते हैं औरत की सबसे बड़ी दुश्मन औरत होती है पर सच तो ये है कि पुरुषों का सबसे बड़ा दुश्मन पुरुष खुद होता है. सारे पाप में भागीदार वो तमाम पुरुष भी हैं जो महिला दिवस पर चार फुट की बधाइयां दे डालते हैं पर पुरुष दिवस पर चार लाइन का मैसेज तक नहीं करते. इस बार का पुरुष दिवस समर्पित उन सभी पुरुषों को जो अपनी शादी की सालगिरह तक तो याद नहीं रख पाते और जिन्हें पुरुष दिवस भी याद न रहा होगा.

(युवा व्यंग्यकार आशीष मिश्र पेशे से इंजीनियर हैं और इंदौर में रहते हैं.)

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