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व्यंग्यः मुझे माफ करना मेरे महान गायक

आज एक दोस्त ने चर्चा छेड़ दी इसलिए हिन्दी सिनेमा के गायकद्वय याद आ गए. अस्सी के दशक में इन दोनों का प्रादुर्भाव हुआ था. भावना बड़ी अच्छी थी लेकिन दु: अनायास ही जुड़ता चला गया. एक थे मोहम्मद अजीज, दूसरे शब्बीर कुमार. दोनों सुर के साधक थे. एक तान में सेन, दूसरे आलाप में प्रलापी. महान रफी के जीवन के अंतिम वर्षों के गानों को सुनते हुए इन आवाजों का पूर्वाभास होने लगता है.

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आज एक दोस्त ने चर्चा छेड़ दी इसलिए हिन्दी सिनेमा के गायकद्वय याद आ गए. अस्सी के दशक में इन दोनों का प्रादुर्भाव हुआ था. भावना बड़ी अच्छी थी लेकिन दु: अनायास ही जुड़ता चला गया. एक थे मोहम्मद अजीज, दूसरे शब्बीर कुमार. दोनों सुर के साधक थे. एक तान में सेन, दूसरे आलाप में प्रलापी. महान रफी के जीवन के अंतिम वर्षों के गानों को सुनते हुए इन आवाजों का पूर्वाभास होने लगता है.

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फिर एक दिन अचानक जब वे रेडियो की बंद दीवारों को चीर कर हमारे कान में घुसपैठ कर बैठीं तब हमने अनुभव किया कि नकल कला बहुत कुछ छिन्न भिन्न कर सकती है. चूंकि हर गायक अपने जीवन में कभी न कभी खराब गाता है, लिहाजा रफी ने भी कुछ गाने खराब गाए थे, उनके अंधभक्त इससे असहमत हो सकते हैं, लेकिन किसी दिन सामने बैठ कर उन्हें समझा दूंगा कि रफी, किशोर, महान लता, और मुकेश, मन्ना डे सबने कुछ गाने खराब गाए हैं.

बहरहाल इन दोनों साहबों ने रफी के सबसे खराब गानों से अपनी गायकी के लिए सबसे अच्छी प्रेरणा ली और आ गए हारमोनियम की नींद हराम करने.

उन्हें सुनते हुए ऐसा लगता है जैसे, (काश वो विशिष्ट आवाज इन शब्दों से निकाल पाता) मोहम्मद रफी की रूह को डंडा मार कर गले में बिठा दिया गया हो. एक बार किसी गरीब चैनल पर अजीज साहब का साक्षात्कार चल रहा था, वाचक से बात करते हुए उन्होंने गर्व से कहा कि दरअसल बचपन से ही रफी साहब फिट हो गए थे अंदर. तभी मैं समझ गया था, अब न छुटिहैं... गाने में एक बारीक सा भटकाव बड़ा फर्क पैदा करता है. यहां तो दोनों ने दुर्भाग्य से रफी साहब के जीवन के अंतिम वर्षों में गाए गीतों से जो ध्वनि सुनाई पड़ती है उसे ही साध लिया था. वहां से जब गाना शुरू हुआ तो सुनने वालों की आत्मा कांप उठी.

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मंद-मंद गंभीर होने का भ्रम पैदा करती वह आवाज, रफी की रूह को संभाले एक जिन्नाती जज्बा पैदा करती है. लगता था मसान में कोई गाने की तंत्र साधना कर रहा हो और उस दौर के लीरिक्स की तो पूछिए ही मत. यह एक ऐसा डेडली कॉकटेल था, जो संभवत: आगे कभी न होगा. अगर हो जाए, तो हिन्दी सिनेमा का सौभाग्य.

उनके गाए कुछ कालजयी गानों में, आजकली याद कुछी रहिता नहीं.. चूंकि गाते हुए, आजकल, कुछ और रहता की ध्वनि उपरोक्त हो जाती थी, इसीलिए वैसा लिखा गया है. जैसा कि, एक बसी आपकी याद याने के बाद.. दूसरा नमूना, हैरान हूं मैं आपकी जुलिफों को देखकर, आ हा हा डाबर आंवला केश तैल..

न फनकार तुझिसा तेरे बाद याया.. मोहम्मद रफी तू बहुत याद याया.. एक तो रफी के ऊपर गाना, दूसरा अमिताभ पर फिल्माना. एक तरफ रफी जैसी रेशमी आवाज, दूसरी ओर अमिताभ जैसी अभूतपूर्व डायलॉग डिलिवरी. इन दोनों ही विभूतियों के साथ मोहम्मद अजीज ने ऐतिहासिक अन्याय किया, लेकिन गुनहगार वो नहीं उस फिल्म के प्रोड्यूसर थे, जिनके कूढ़ दिमाग ने ऐसे किसी गाने की कल्पना की थी, और फिल्माया था. जैसे कि, 'आखिरी रास्ता' फिल्म का एक गाना है, 'तूने मेरा दूध पिया है, तू बिल्कुल मेरे जैसा है, उफ ! मां की छाती में दूध उतर आए. और गायकों में वीर, शब्बीर कुमार ने जब अमिताभ के लिए गाया तो उन्हें हिन्दी सिनेमा का श्रेष्ठ मर्द बना डाला.

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मरिद तांगे वाला.. याद है ना?

उसी फिल्म का एक और गाना है, ओ मां शेरावाली. हिन्दी सिनेमा के युगों-युगों से भटके मां-बेटे के मिलन का कारुणिक आख्यान. उफ्फ मत पूछिए, अब भी जब वह गाना बजता है, मेरे हृदय के सारे कपाट वेदना के झंझावात में थरथरा उठते हैं. क्या गायक थे दोनों, जी करता है उनके ही गानों पर लिखता रहूं. करीब डेढ़ दशक तक इन दोनों ही रंभाते गायकों ने कुछ बेहतरीन नगीने दिए हैं.

हुकूमत, धर्मेन्द्र की महान फिल्म का एक गाना जब शब्बीर कुमार की आवाज में बजता है, तो मारपीट की इच्छा जाग उठती है, क्योंकि उसके बोल हैं 'अरे मारो उसको मारो..' आवाज में ऐसी कारीगरी!

इन दोनों ही गायकों पर लंबे शोध की जरूरत है, गायकी की कौन सी प्रवृति से प्रेरणा लेकर इन्होंने रफी को रौंद डाला था? इस दौर के सभी गाने जो ऋषि कपूर, मिथुन, अमिताभ और ऊपर से नीचे तक सफेद भूतिया वस्त्र धारण कर नृत्य करने वाले जितेन्द्र के लिए इन दोनों ने गाए वो अनमोल थे, श्रोता समय से भटकी हुई उस सुरमाला को अपना सौभाग्य मानते हैं. उनके कुछ यादगार गानों की एक छोटी सी सूची आपके सामने है.

तूने बेचैन इतना जियादा किया,
माई नेम इस लखन,
कागज कलम दवात ला,
दुनिया में कितना गम है,
मैं तेरी मुहब्बत में पागल हो जाऊंगा

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इत्तेफाक देखिए कि इन दोनों ही प्रतापी गायकों को ज्यादातर विलापी गान मिले. और दोनों ने कुक्कुर रुदन सरीखा स्वर पैदा किया. उनके ऐसे गानों की सूची बहुत लंबी है. जिस पर गर्व किया जा सकता है. उनके कई गानों को सुनते हुए ऐसा लगता है जैसे रफी का कोई डकैत दीवाना, गले में कट्टा डाल कर बैठ गया हो और कह रहा हो गाओ बेटा. ऐसे गायक बार बार पैदा नहीं होते. सिनेमा का एक सुनहरा दौर इन्हें पैदा करता है.

जाते जाते, शब्बीर कुमार का एक गाना सुनिएगा, 'गोरी हैं कलाइयां..' अमिताभ बच्चन के स्टारडम के सबसे विकराल समय में गायकी का ये भीमा पैदा हुआ था, जिसने गले की गदा से सबको परास्त कर दिया था. इन दोनों ही असुरसैनियों को मेरा नमन.

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