साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा होते ही देशभर में खुशी की लहर दौड़ गई. अव्वल तो लोगों को इस बात का सुकून था कि ये पुरस्कार ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ जैसी महान रचना के बाद भी चेतन भगत को नहीं मिला. उससे भी ज्यादा खुश नरेंद्र मोदी के समर्थक थे जिन्होने खुशी के मारे विजेता का नाम ठीक से नहीं सुना. हालांकि पैट्रिक ‘मोदि’यानो का पूरा नाम और राष्ट्रीयता सुनते ही उनकी खुशी काफूर हो गई.
साथ ही शांति के नोबल पुरस्कारों की घोषणा भी हुई, जो भारत के कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला युसूफजई को संयुक्त रूप से मिला. ऐसे अशांति भरे वातावरण में जब भारत और पाकिस्तान की सेनाएं सीमा पर हर घड़ी एक-दूसरे से लोहा ले रही हैं तब भारत और पाकिस्तान के दो लोगों को संयुक्त रूप से ‘शांति’ का नोबेल पुरस्कार मिलने की बात सुन मुंह दबाते-दबाते मेरी हंसी छूट गई. कोई कुछ भी कहे, विदेशियों का सेन्स ऑफ ह्यूमर होता बड़ा तगड़ा है.
मलाला को नोबेल मिलने पर भी पाकिस्तान में बैठे कुछ लोगों को मलाल हो रहा है. वो इस बात पर कुढ़े जा रहे हैं कि कश्मीर तो हाथ नहीं लगा, ले-देकर जो नोबेल हाथ आया उसे भी आधा हिन्दुस्तान ने हड़प लिया. राजनीति तो तब गरमाई जब खिसियाये हुए बिलावल भुट्टो ने फिर ऐलान कर दिया कि वो हिन्दुस्तान से नोबेल का इंच-इंच वापिस ले लेंगे. उधर हाफिज सईद ने भी नोबेल वापिस लाने के लिए कमर कस ली और अपने ‘उत्साही शांतिदूतों ’ को पौन-पौन किलो काजू-छुआरे-बादाम की थैली और दिल्ली का नक्शा देकर मोटरबोट में बैठाते नजर आए.
कैलाश सत्यार्थी को नोबेल मिलते ही हिन्दुस्तान में भी लोग हरकत में आ गए. उनमें से ज्यादातर गूगल पर ‘हू इज कैलाश सत्यार्थी’ लिखते पाए गए. यूं तो कैलाश सत्यार्थी बाल अधिकारों के लिए लंबे समय से लड़ते आए हैं लेकिन अफसोस कुछ हद तक हिंदुस्तान में उन्हें उतनी प्रसिद्धि न मिल पाई. इसकी मूल वजह हमारे समाज में बढती हुई संवेदनहीनता भी है. संवेदनहीनता की हद तो देखिये एक ओर जहां कैलाश सत्यार्थी को बाल श्रम के खिलाफ आवाज उठाने पर नोबेल पुरस्कार मिल रहा था वहीं दूसरी ओर सोनिया गांधी खुद अपने बच्चे को महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनाव प्रचार जैसे खतरनाक काम पर भेज रही थीं. वो भी तब, जब पिछले चुनावों में राहुल गांधी की चुनावी रैलियों के चलते हारे हुए उनके प्रत्याशियों ने हाथ जोड़कर विनती की थी कि हम बिना फंड लड़ लेंगे लेकिन आप राहुल जी को चुनाव प्रचार पर दोबारा मत भेजिएगा.
इस बार नोबेल पुरस्कारों की घोषणा के बाद विजेताओं को चुनने वाली ज्यूरी के सामने कई तरह की चिंताएं भी उभरकर आ रही हैं, हमारे लिए भले ही ये बड़े गौरव की बात है कि नोबेल पुरस्कार एक भारतीय को मिला लेकिन ज्यूरी को अब ये डर सता रहा है कि कल को भारत रत्न की तरह मायावती, स्व. कांशीराम के लिए भी नोबेल पुरस्कार न मांग बैठें. कई लोगों ने दस साल तक शांत रहने के बाद भी मनमोहन सिंह को शांति का नोबेल न मिलने पर नाराजगी जताई, जिसे ज्यूरी ने यह कहकर टाल दिया कि उन्हें तो दस साल पहले ही ‘ना-बोल’ मिल चुका है. हद तो तब हो गई जब राहुल गांधी ने ‘शांति’ के लिए मंदिरा बेदी को नोबेल न मिलने पर सवाल खड़े कर दिए.
नोबेल कमेटी ने पाया है कि हर साल भारत रत्न की घोषणा होने के पहले भारत में भारत रत्न मांगने की होड़ लग जाती है. भाजपा वाजपेयी जी से लेकर सपा मुलायम सिंह यादव के लिए भारत रत्न की मांग करने लगती है. आलम ये होता है कि किराने की दुकान पर दस की नोट लेकर आठ रुपये का सामान देने के बाद अगर दुकानदार दो रुपये चिल्लर भी लौटाता है तो अगला चिल्लर के बदले ‘भारत रत्न’ मांग बैठता है. नोबेल कमेटी ने चिंता जताई है कि निकट भविष्य में अगर उन्हें भी ऐसे दिन देखने पड़े तो वो नोबेल पुरस्कार बांटना छोड़, मातारानी के पंडाल में आरती के बाद प्रसाद बांटना ज्यादा पसंद करेंगे.
(आशीष मिश्रा फेसबुक पर सक्रिय युवा व्यंग्यकार हैं और पेशे से इंजीनियर हैं.)