सोमवार की सुबह देर से उठने को अगर आलस समझ बैठे हैं, तो ये गलतफहमी है. सच कहें तो ये अपमान है तमाम आलसियों का, आलसी होना भी इतना आसान नहीं जितना समझ लिया जाता है. पाँचों इन्द्रियों को सिंक्रोनाइज रखना पड़ता है, कहीं आधी रात गुसल जाने की जरुरत आन पड़े तो उसे भी थाम लें, सोते-सोते पीठ भी अकड़ जाए तो कैसे लेटे-लेटे श्वान गुलाटी लेते हुए पीठ की नसें चटका फिर सो सकें. आलसी होने के लिए मन-वचन-कर्म से खुद को इस योग्य बनाना पड़ता है. वर्ना क्या हो अगर किसी रोज कोई काम सही वक़्त पर करने का मन कर जाए या रात के दो बजे किसी मित्र को रेलवे स्टेशन से उठाने का वचन दे बैठें?
आलसी होने का सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि अगला उम्मीदें रखना छोड़ देता है और आलसी व्यक्ति उम्मीदों पर खरा न उतरने की आत्मग्लानि से बच जाता है. अच्छा थोड़े न लगता है कि घरवाले चिल्ला-चिल्लाकर गेंहू पिसाने को कहें और आप बहाने खोजें? आलसी कभी ब्रांड के पीछे नहीं भागता इसलिए पूंजीवाद को भी बढ़ावा नहीं देता, उल्टे आलसी औघड़दानी होते हैं. नई टी-शर्ट को गन्दा होने पर उलट कर पहन लेते हैं, उल्टी तरफ भी गन्दी हो जाए तो फिर सीधी कर लेते हैं. किसी पुरानी धुली बुश्शर्ट के बदले में नई टी-शर्ट दे डालने से भी खुद को नही रोक पाते. यही तो दान की सहजवृत्ति है.
आलसियों को अक्सर डरपोक और नाकारा समझ लिया जाता है, जबकि होता उसके उलट है, आलसी व्यक्ति आलस मेंटेन करने के फेर में इतना बहादुर हो चुका होता है कि पानी गर्म करने के आलस में ठन्पानी से नहा लेता है, जिस छोटे रास्ते को सूनसान मान दिन में भी जाने के नाम पर साधारण व्यक्ति बगलें झांकने लगता है. वहां आलस रक्षा को आतुर रात में भी मजे-मजे निकल जाता है, आलस का महातम्य सिर्फ आलसी समझ सकता है और इसी आलस आराधना में लीन होकर बड़े-बड़े आविष्कार कर जाता है. एक होता है कैमरा, एक घड़ी, एक मोबाइल, एक टॉर्च, एक कैलकुलेटर किसी आलसी को पांच चीजें संभालने में खीझ न होती, तो क्योंकर एक मोबाइल में कैमरा, घड़ी, टॉर्च और कैलकुलेटर समा जाते?
चलते-चलते आलसियों की संख्या आजकल राजनीति में भी बढ़ गई है, किसी बड़ी पार्टी में बजाय जिन्दगी भर खपने के दस रुपये चन्दा देकर छोटी पार्टी ज्वाइन कर उसे छोड़ बड़ी पार्टी में पैराशूट एंट्री का बढ़ता रिवाज भी इसी का नतीजा है.
(आशीष मिश्र पेशे से इंजीनियर और फेसबुक पर सक्रिय व्यंग्यकार हैं.)