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व्यंग्य: 'पीके'-विरोधी 'बजरंगी' लोगों का जन्मदाता कौन, सेकुलरदास की व्यथा कथा-3

'पीके' फिल्म के विरोध में उतरे लोगों को संघी-बजरंगी बताकर सेकुलरबाज-राजनीति अपना पल्ला झाड़ लेती है. आज शाम को इसी मामले पर बंदानवाज दाढ़ीदराज सेकुलरदास से मेरी भिडंत हो गई. मजे की बात यह है कि वे जरा भी विचलित नहीं हुए मानों पहले से ही तैयार हों.

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पीके फिल्म में आमिर खन और संजय दत्त
पीके फिल्म में आमिर खन और संजय दत्त

'पीके' फिल्म के विरोध में उतरे लोगों को संघी-बजरंगी बताकर सेकुलरबाज-राजनीति अपना पल्ला झाड़ लेती है. आज शाम को इसी मामले पर बंदानवाज दाढ़ीदराज सेकुलरदास से मेरी भिडंत हो गई. मजे की बात यह है कि वे जरा भी विचलित नहीं हुए मानों पहले से ही तैयार हों. मैंने कहा,'आज आपका इंटरव्यू लूंगा. वे तपाक से बोले, सवाल तो पूछो. मैं सहमते हुए एक साथ अनेक सवाल बक गया...

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1. ये 'पीके' विरोधी जमात पैदा ही क्यों हुई? पिछले कुछ सालों में इसकी तादाद और ताकत इतनी बढ़ कैसे गई?
2. दिल्ली दंगे सेकुलर और गुजरात दंगे कम्युनल कैसे होते?
3. कश्मीर से भगाए हिन्दू कम्युनल और बच गए मुसलमान सेकुलर कैसे होते?
4. एकमात्र मुस्लिम बहुल आबादी का क्षेत्र अपनी हिन्दू अक़लियत के अपमान, हत्या और बलात्कार का सेकुलर मूकदर्शक क्यों बना रहा?
5. एक ही काम के लिए मुसलमान सेकुलर और हिन्दू कम्युनल कहा जाता रहा मानों हर 'ख़ान' सेकुलर और 'सिंह' कम्युनल हो?
6. तसलीमा नसरीन और रुशदी पर चुप्पी तथा हुसैन और 'पीके' पर हंगामा क्या साबित करता है?
7. सेकुलर-कम्युनल शब्द आज क्यों मजाक का विषय बन गए हैं ?

सवाल खत्म होते-होते मैं थक सा गया, लेकिन सेकुलरदास अविचल रहे. मुझे अपने हाथों पानी लेकर दिया. तू थोड़ी सांस ले ले. फिर मानों टेपरिकार्डर की तरह शुरू हो गए. इन बजरंगी भाइयों की वर्तमान पैदावार की जमीन है भारतीय मनीषा से कटे पढ़े-लिखे लोग जिनकी बुद्धि के अंडे से सिर्फ अंडे निकलते, चूजे नहीं. 'नदी के द्वीप' की तरह वास्तविकता से कटे, लेकिन अमरलत्ती की तरह बौद्धिकजगत को आच्छादित कर उसे खुली हवा और रोशनी से वंचित करनेवाले ये लोग 'था' को 'ना' और 'ना' को 'था' करने में सिद्ध हैं.

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अगर इस स्थिति को ठीक नहीं किया गया तो मोबाइल और इंटरनेट हिन्दुओं के स्वयंभू 'इस्लामी मोर्चे' इतनी बड़ी तादाद में खड़े कर देंगे कि उसके सामने बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद् पानी भरें. मैंने आदतवश टोका- आश्चर्य है कि टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए भी उसके दूरगामी प्रभाव से शुतुरमूर्ग की तरह अनजान बना ये तबका उसी पुराने ढर्रे पर चल रहा है.

सेकुलरदास आज इस टोकाटाकी के लिए तैयार नहीं दिखे. फिर रौ में आ गए. दशकों से झूठ की खेती कर उसका असल ईनाम पाने का अभ्यस्त यह तबका समस्या का मौलिक समाधान करने में अपने को अक्षम मान चुका है वैसे ही जैसे कुछ साल अंग्रेजी में पढ़ाई-लिखाई करने वाला हिन्दी भाषी यह समझता है कि अब वह हिन्दी में ठीक से अपनी बात नहीं कह सकता.

मुझे डर है कि बुद्धिविलासिता का शिकार यह वर्ग नई पीढ़ी के सामने उपहास का पात्र न बन जाए और फिर प्रतिक्रिया में हिन्दुओं का 'इस्लामीकरण' (कट्टरीकरण) एक मजबूत आंदोलन की शक्ल न ले.

क्या मैं कुछ बोलूं, बहुत धीरे से मैंने पूछा. उन्होंने कहा, नहीं. बस यही समझ लो कि आज सेकुलरदास की यही त्रासदी है.

(डॉ. चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह के ब्लॉग 'यू एंड मी' से साभार)

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